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अर्थ:
इसके अनन्तर परस्पर सहायता करने वाले वे तैंतीस कुटुम्ब नामक श्रावक, पहले उग्र, प्रविहारी, संचित और संबिन विहारी होकर पीछे पासत्थ, पासत्थ विहारी उसन्न उसन्नविहारी, कुशल कुशीलविहारी, यथाच्छन्द और यथाच्छन्द विहारी होकर रहने लगे थे और इस प्रकार वे बहुत वर्षो तक श्रमणोपासककी पर्य्यायका पालन करते रहे ।
इस पाठ में श्रमणोपासक को भी उसन्न पासत्थ और कुशील आदि कहा है इस टिये जो श्रावक उसन्न, पासत्थ और कुशील आदि है उसीको शास्त्र पढ़ने का निशीथ सूत्रके उक्त पाठमें निषेध किया है। जो श्रावक संविग्न, संविद्मविहारी उम्र और और उमविहारी हैं उनको शास्त्र पढ़नेका निषेध नहीं किया है अतः निशीथ सूत्रका नाम लेकर श्रावक मात्रको शास्त्र पढ़ानेका निषेध करना मिथ्या समझना चाहिये ।
बोल ८
( प्रेरक )
पासत्य किसे कहते हैं ?
I
( प्ररूपक )
शास्त्रमें ज्ञानादि आचारके आठ भेद कहे हैं उनमें दोष लगानेवाला पाइर्वस्थ कहा जाता है । वे ज्ञानाचार ये हैं
1
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"काले, विणए, वहुमाणे, तहय अनिहूणवणे । वंजन अत्थ तदुभये अट्ठविहो नाण मायारो ।
( आचारांग टीका )
[१] नियत की हुई मर्यादाके साथ कालिक मूत्रोंका अध्ययन करना [२] विनय पूर्वक अध्ययन करना [३] बहुमानके साथ अध्ययन करना [४] उपधानतपके साथ पढ़ना [५] पढ़ानेवालेका नाम नहीं छिपाना [ ६ ] सूत्र [७] अर्थ [८] और तदुभयको पढ़ना ये
आठ ज्ञानाचार कहे गये हैं ।
इन आठ ज्ञानाचारोंमें जो दोष लगाता है वह "पासत्थ" कहा जाता है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि श्रावक भी शास्त्र पढ़नेका अधिकारी है क्योंकि भगवती शतक १० उद्देशा ४ में श्रावक को भी पासत्य कहा है । यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो वह ज्ञानाचारमें दोष लगाकर पासत्थ कैसे हो सकता है ? अतः श्रा वकको सूत्र पढ़नेका निषेध करना अज्ञान है ।
उत्तराध्ययन सूत्रमें लिखा है कि जो मनुष्य सूत्रोंको पढ़ता हुआ आचारांगादि
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