________________
सद्धममण्डनम् ।
विभङ्ग ज्ञान सम्यक्त्व प्राप्तिका साक्षात् कारण यहां कहा है। यदि विभङ्ग ज्ञानको वीतरागकी आज्ञामें नहीं मानते तो बाल तपस्या और बाल तपस्वीके पूक्ति गुणोंको भी आज्ञामें नहीं मान सकते क्योंकि जब सम्यक्त्वकी प्राप्तिका साक्षात् कारण विभङ्ग ज्ञान वीतरागकी आज्ञामें नहीं है तब परम्परा कारण प्रकृति भद्रकतादि गुण क्यों कर आज्ञामें हो सकते हैं ? अतः सम्यक्त्व प्राप्तिके परम्पराकारण बाल तपस्या आदिको वीतरागकी आज्ञामें कहना अज्ञानमूलक है।
यदि कोई विभङ्ग ज्ञानको भी वीतरागकी आज्ञामें बतावे तो उसे कहना चाहिये कि अज्ञान आज्ञामें नहीं होता। विभङ्ग ज्ञान अज्ञान है इसलिये वह आज्ञामें नहीं है। आवश्यक सूत्रमें कहा है कि "अन्नाणं परियाणामि नाणं उवसंपवजामि" अर्थात् साधु प्रतिज्ञा करता है कि मैं अज्ञानको छोड़ कर ज्ञानको प्राप्त करता हूं। यहां अज्ञानको त्यागने योग्य कहा है इसलिये वह आज्ञामें नहीं है।
भगवतीके उक्त मूलपाठमें "लेस्साहिं विसुज्झमाणी हिं" यह पाठ आया है। इस में विशुद्ध लेश्याका कथन हुआ है इसे देख कर कई यह कहते हैं कि "उक्त लेश्या वीतरागकी आज्ञामें है क्योंकि वह विशुद्ध कही गई है" उनसे कहना चाहिये विशुद्ध होनेसे लेश्या आज्ञामें नहीं हो जाती। भगवती शतक १३ उद्देशा १ में नील लेश्या भी विशुद्ध कही है परन्तु वह वीतरागकी आज्ञामें नहीं है उसी तरह भगवतीके उक्त मूलपाठमें कही हुई मिथ्यादृष्टिकी विशुद्ध लेश्या भी आज्ञामें नहीं है। कृष्णलेश्यासे नील लेश्या विशुद्ध कही है वह पाठ यह है- "सेनूणं भन्ते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जंन्ति ? हंता गोयमा ! कण्हलेस्ते जाव उववज्जति । सेकेण?णं भन्ते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्ले जाव उववज्जंति ? गोयमा ! लेस्साठाणेसु संकिलिस्समाणेस्सु कण्हलेस्सं परिणमइ से कण्हलेस्सेसु नेरइएसु उववज्जति सेतेण?णं जाव उववज्जंति । सेनूणं भन्ते ! कण्हलेसे जाव सुक्कलेसो भवित्ता णोललेहोसु नेरइएसु उववज्जति ? हंता गोयमा ! जाव उववज्जते । सेकेण?णं जाव उववज्जति ? गोयमा ! लेस्सा ठाणेसु संकिलिस्समाणेसु विसुज्झमाणेसु नीलले परिणमइ नील लेस्सोसु नेरइएसु उववज्जति । सेतेण?णं गोयमा ?"
(भगवती शतक १३ उद्देशा १)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com