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________________ मिथ्यात्विक्रियाधिकारः । सेणंतेणंविभंगनाणसमुप्पन्नेणंजहन्नेणंअंगुलस्सअसंखोजाइ भागंउक्कोसेणं असंखोजाई जोयण सहस्साईजाणइ पासइ सेणंतेण विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं जीवेविजाणइअजीवेवि जाणइ पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणेविजाणइ सेणं पुव्वामेव सम्मत्त पडिवजह समणधम्म रोएइ चरित्त पडिवनइ लिंगपडिबजई" जो जीव, केवली आदिके वाक्यको सुने बिना सम्यक्त्वसे लेकर केवल ज्ञानतक प्राप्त करता है उसे जिस प्रकार सम्यक्त्वसे लेकर केवल ज्ञानकी प्राप्ति होती है वह इस पाठमें कहा है। इसका अर्थ यह है जो जीव, दो दो दिनको लगातार तपस्या करता हुआ सूर्या के सम्मुख अपनी भुजाओं को उठा कर आतापन भूमिमें आतापना लेता है उसकी स्वाभाविक भद्रता, शान्ति, स्वाभाविक क्रोध, मान, मायालोभकी अल्पता, मृदुता, विनीतता, इन्द्रियनिग्रह इन गुणोंसे, किसी समय शुभ अध्यवसाय, शुभपरिणाम और शुद्ध लेश्याओंसे विभङ्ग ज्ञानावरणीय कर्मका क्षयोपशम होता है। और विभंग ज्ञानावरणीय कर्मके क्षयोपशम होनेसे वह जीव वस्तुस्वरूपको जाननेकी चेष्टा करता है और उस चेष्टाके विपक्ष यानी वाधक वस्तुको हटा देता है पश्चात् वस्तुओंके सजातीय और विजातीय धर्मकी आलोचना करते हुए उस जीवको विभंग नामक अज्ञान पैदा होता है उस विभंग अज्ञानके प्रभावसे वह जीव. जघन्य अंगुलिके असंख्य भागको और उत्कृष्ट असंख्य हजार योजन तकके पदार्थो को जानता और देखता है। वह जीवोंको भी जानता है और अजीवोंको भी जानता है व्रतधारियोंको भी जानता है और आरम्भ परिग्रह वालोंको भी जानता है। जो पुरुष आरम्भी और परिग्रही हैं उनको बहुत ज्यादा अशुद्ध और थोड़ा शुद्ध भी जानता है वह चारित्र प्राप्तिके पहले सम्यक्त्वको प्राप्त करता है तब पीछे श्रमण धर्मको पसन्द करता है पश्चात् चारित्र प्राप्ति करके लिंगको प्रहण करता है। __ इस मूलपाठमें, बालतपस्या, प्रकृति-भद्रकता, शान्ति, विनीतता, शुभ अध्यवसाय, शुभ-परिणाम और विशुद्धलेश्यासे विभंग ज्ञानके आवरणीय कर्मों का क्षय हो कर मिथ्यादृष्टिको विभंग ज्ञानकी प्राप्ति और विभंग ज्ञानसे जीवाजीवादि पदार्थों का ज्ञान होकर सम्यक्त्वकी प्राप्ति बतलाई है। इससे सिद्ध होता है कि विभंग ज्ञान सम्यक्त्वकी प्राप्तिका साक्षात् कारण है और प्रकृति भद्रकतादि गुण तथा शुभ परिणाम और विशुद्ध लेश्याए परम्परा कारण हैं । ऐसी दशामें सम्यक्त्वकी प्रापिके कारण होनेसे मिथ्यादृष्टिकी प्रकृति भद्रकता आदि गुण, तथा वाल तपस्याको कोई वीतरागकी आज्ञामें बतावे तो सबसे पहले उसे विभंग ज्ञानको वीतरागकी आज्ञामें मानना होगा। क्योंकि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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