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अनुकम्पाधिकारः ।
विषयमें नहीं उन पर करुणा करना साधुओंका कर्त्तव्य है । इसलिये जो मरते प्राणी पर दया नहीं करता और दया करके उसकी रक्षाका उपदेश नहीं देता वह अज्ञानी एवं मिथ्यादृष्टि है उसे शास्त्रीय रहस्यका ज्ञान नहीं है। जो लोग इस टीकामें आये हुए आदि शब्दसे साधुके सिवाय सभी जीवोंका ग्रहण होना मान कर साधुके सिवाय सभी जीवों को हिंसक और सभी विषयमें मध्यस्थ भाव रखनेका उपदेश देते हैं वे बिलकुल मू हैं। यदि साधुके सिवाय सभी हिंसक हैं और सभीके विषय में मध्यस्थ भाव रखना शास्त्र सम्मत है तो फिर मैत्री, प्रमोद, और कारुण्य किस पर रक्खे जाएंगे ? अतः इस टीका का नाम लेकर साधुके सिवाय सभी प्राणियोंको हिंसक और उपदेशके द्वारा उनकी प्राप्य रक्षा करनेमें पाप बताना एकान्त मिथ्या है वास्तव में पन्चेन्द्रिय घात आदि महारम्भका का करने वाले जो प्राणी समझानेसे भी नहीं समझ सकते हैं उन्हींके विषयमें मौन रहने का या मध्यस्थ भाव रखने का यहां उपदेश किया है मरते प्राणी पर दया करके उपदेश देनेका निषेध नहीं किया है उन पर करुणा करनी ही चाहिये, जो नहीं करता और करुणा करनेमें पाप कहता है उसे निद्द य और प्राणियोंका द्रोही समझना चाहिये ।
( बोल ९ वां समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन वृष्ठ १३५ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं- "अथ इहां कह्यो गृहस्थ मांहो माहि छड़े छै आक्रोश व्यादि करे छै तो इम चिन्तवणो नहीं एहनो आक्रोशो हणो रोको उद्वेग दुःख उपजावो । तथा एहने मतहणो मत आक्रोशो मन रोको उद्वेग दुःख मत उपजावो इमि चिन्तवो नहीं । एहनो ए परमार्थ जे राग आणी जीवणो वाब्च्छी इम न चिन्तवजो एवापडाने मतणो उद्वेग दुःख न देवो । तो रागमें धर्म कहांथी जीवणो वांच्या धर्म किम कहिए अने जे हणे तेहने पाप टालिवाने वारिवाने उपदेश देई हिंसा छोडावे ते वो धर्म छै" (भ्र० पृ० १३५/३६ )
इसका क्या उत्तर ?
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(प्ररूपक)
आचारांग सूत्रका मूल पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है वह पाठ
यह है :
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" आयाण मेयं भिक्खूस्स सागारिए उवस्सए संवसमाणस्स इह खलु गाहावईवा जाब कम्मकरीवा अन्नमन्नं आकोसंतिया
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