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सद्धर्ममण्डनम् ।
भक्ति-भावरहित द्रव्य वन्दना करनेकी आज्ञा नहीं देते । इसलिये गोतम स्वामीने भक्तिभावके साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दन नमस्कार करने की आज्ञा दी थी। उस आज्ञाके अनुसार यदि स्कन्दकजीने भगवान्को भक्तिभावके साथ सम्यग्ज्ञानपूर्वक वन्दन नमस्कार किया था तो वह उस समय सम्यग्दृष्टि ही थे मिथ्यादृष्टि नहीं ।
यदि वैसा न करके स्कन्दकजीने मिथ्यात्वके साथ द्रव्य रूप वन्दन नमस्कार किया था तो उनका वह नमस्कार गोतम स्वामीकी आज्ञामें हुमा ही नहीं क्योंकि गोतम स्वामीने भक्तिभावके साथ भाव रूप वन्दन नमस्कार करने की आज्ञा दी थी भक्ति रहित मिथ्यात्वयुक्त द्रव्य वन्दनकी नहीं। अतः स्कन्दकजीका उदाहरण देकर मिथ्यादृष्टिके मिथ्यात्वयुक्त द्रव्यरूप वन्दन नमस्कार को जिन आज्ञामें कायम करना नितान्त मिथ्या है।
(बोल ३४ वां)
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४० पर लिखते हैं कि “ अथ इहां तामली बालतपस्वीरी अनित्यचिन्तवना कही छे। ए संसार अनित्य छै एहवीचन्त वना ते तो शुद्ध छै" इसके बाद पुष्कियोपाङ्गका पाठ देकर लिखते हैं-अथ इहां सोमिल ऋषिनी अनित्य चिन्तवना कही। ए अनित्य चिन्तवना शुद्ध करणी छ निरवद्य छ तेहने आज्ञा बाहिरे किम कहिए"
___ इसके आगे और भी लिखते हैं—“वली अनित्य चिन्तवना धर्मध्यानरो भेद चाल्यो ते ही अनित्य चिन्तवना तामली सोमिल ऋषि प्रथम गुण ठाणे थकी कीधी तेहने अधर्म किम कहिए ए धर्मध्यानरो भेद आज्ञा बाहरे किम कहिए” (भ्र० पृ० ४०-४१
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
तामली बाल तपस्वी और सोमिल ऋषिकी अनित्थ जागरणको धमध्यानकी अनुप्रेक्षामें कायम करके प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टिकी क्रियाको जिन आज्ञामें कायम करना मिथ्या है। प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टियोंमें धर्मध्यान होता ही नहीं, क्योंकि धम्मध्यान, सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके साथ ही होता है यह पहले बतलाया जा चुका है। सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन मिथ्यादृष्टियोंमें नहीं होता इसलिये उनमें धर्मध्यान भी नहीं हो सकता। जब कि प्रथम गुण स्थान वाले मिथ्यादृष्टियोंमें धर्मध्यान नहीं होता तब धर्मध्यानका भेद स्वरूप अनित्य जागरणा उनमें कैसे हो सकती
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