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________________ ९६ सद्धर्ममण्डनम् । ___ इस पाठमें आनन्द श्रावकने अन्य यूथिकको गुरु बुद्धिसे दान देनेका त्याग किया है करुणासे दान देनेका त्याग नहीं किया है। अतएव इस पाठकी टीकामें टीकाकारने लिखा है "अयंच निषेधो धर्म वुद्ध यव, करुणयातु दद्यादपि” अर्थात् यह जो अन्य यूथिकको दान देनेका निषेध है यह धर्म बुद्धि (गुरु बुद्धि ) से ही समझना चाहिए अनुकम्पासे नही, अनुकम्पा करके अन्य यूयिकको दे भी सकते हैं । यहां टीकाकारने मूल पाठका आशय बनलाते हुए अन्य यूथिकको गुरु बुद्धिसे ही दान देने का निषेध बतलाया है अनुकम्पासे नहीं अतः आनन्दका नाम लेकर अनुकम्पादानका निषेध करना अज्ञानियोंका कार्य है। कोई अज्ञानी यहां यह कुतर्क करते हैं कि अन्ययूथिकको दान देना यदि पुण्य का कारण है तो अन्य यूथिकको वन्दन नमस्कार करना पुण्यका कारण क्यों नहीं ? उन लोगोंसे कहना चाहिये कि अनुकम्पा दान, अनुकम्पा लाकर दिया जाता है इसलिए इसमें पुण्य है क्योंकि अन्य तीर्थीपर अनुकम्पा करना भी पुण्यकाही कारण है परन्तु वन्दन नमस्कार करना नहीं, क्योंकि वन्दन नमस्कार पूज्य बुद्धिसे किया जाता है और अन्य तीर्थीमें पूज्य बुद्धि रखना समकितका अतिचार है इसलिए अन्य यूथिकको वन्दन नमस्कार करना पुण्य नहीं है। आनन्द श्रावकने अन्य यूथिकको जिस प्रकार पूज्य बुद्धिसे वन्दन नमस्कार करनेका त्याग किया था उसी तरह पूज्य बुद्धिसे उन्हें दान देनेका भी त्याग किया था अनुकम्पा दानका नहीं, अतः आनन्दका नाम लेकर अनुकम्पा दानको उड़ाना मूल्का कार्य है। * उपासक दशाङ्गके उक्त मूल पाठमें "दाऊंवा " अणुप्पदाऊंवा" ये दो शब्द आये हैं इनका अर्थ जीतमलजीने देना और दूसरेसे दिलाना लिखा है परन्तु "अणुप्पदाऊंवा" इस पदका दिलाना अर्थ नहीं होता बार बार देना अर्थ होता है तथा उक्त पाठ में आये हुए “वित्ति कतारेण" इस पदका अर्थ भी इन्होंने अशुद्ध किया है। जैसे कि भ्र० पृ०५३ में लिखा है “वि. अटवी कांतारने विषे कारणे आगार " यह अर्थ बिलकुल अशुद्ध है । टीकाकारने इसका अर्थ इस प्रकार किया है “ बृत्तिः जीविका तस्याः कान्तारम् अरण्यं तदिव कान्तार क्षेत्रं कालोवा वृत्ति-कान्तारम् निर्वाहा भावइत्यर्थः । अर्थात् “घोर जङ्गलकी तरह जीविकाके लिये कठिन क्षेत्र या कालका आना "वृत्तिकान्तार" कहलाता है । निर्वाह न होना इसका तात्पर्य है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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