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Sargत्याधिकारः ।
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यह है कि सुभद्रा सतीने जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकाला था, इससे उसको पाप हुआ तथा किसी दुष्टके द्वारा साधुके गलेमें लगाई हुई फांसीको यदि कोई दयालु गृहस्थ काट देवे, तथा आगमें जलते हुए साधुको कोई दयावान गृहस्थ बांह पकड़ कर बाहर कर दे तो उसको एकान्त पाप होता है ।
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
सुभद्रा सतीने जिन कल्पी मुनिकी आंखसे तिनका निकाला था इस काय्यैसे सुभद्राजीको पाप बतलाना भीषणजीका अज्ञान है तथा साधुके गलेकी फांसी काटने और मगमें जलते हुए साधुको बांह पकड़कर बाहर निकालनेसे दयालु गृहस्थको पाप बतलाना जीतमलजीका भी अज्ञान है। भगवती सूत्र शतक १६ उद्देशा ३ के अन्दर साधुकी नासिकामें लटकते हुए अर्शका छेदन करने वाले वैद्यको शुभ क्रिया ( पुण्यवन्ध ) होना कहा है । वह पाठ यह है
"अणगारस्सणं भन्ते ? भाविअप्पणो छट्ठ छट्टणं अणिक्खितेणं जाव आयावेमाणस्स तस्सणं पुरच्छिमेणं अवड्ढ दिवसं णो कप्पइ हत्थंवा पायंवा उरुवा आउंटावेत्तएवा पसारेत्तएवा पच्चच्छिमेणं अवड्ढ दिवसं कप्पइ हत्थंवा पायंवा जावउरुवा आटा वेत्तएवा पसारेत्तएवा” तस्स य अंसिआओ लंबइ तंचेव बिज्जे अदक्खु इसिपाडे इ । पाडे इत्ता अंसिआओ छिंदेज्जा सेणूणंभन्ते ? जे छिन्देज्जा तस्स किरिया कज्जइ । जस्सछिन्दइ णोतस्स किरिया कज्जइ गणत्थेगेणं धम्मं तराएणं १ हन्त ! गोयमा ! जेछिन्दइ जाव धम्मंतराएणं सेवं भन्ते भन्तेति "
( भ० श० १६ उ० ३ )
अर्थ
हे भगवन् ! निरन्तर बेले बेळे तप करता हुआ यावत् आतापना लेता हुआ भावितामा अनगारका दिनके पूर्वार्ध भागमें अपने हाथ, पांच, ऊरू आदि अङ्गोंको पसारना और संकोच करना नहीं कल्पता । तथा दिनके उत्तरार्धमें उक्त अङ्गोंको पसारना और संकोच करना कस्पता है। उक्त साधुकी नासिकामें लटकते हुए अर्शको यदि कोई वैद्य साधुको नीचे डालकर काटे तो वैद्यको क्रिया लगती है परन्तु साधुको एक धर्मान्तरायके सिवाय और क्रिया नहीं लगती क्या यह बात सत्य है ?
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