SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 428
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सद्धर्ममण्डनम् । हां गोतम ! सत्य है । छेदन करने वाले वैद्यको ही क्रिया लगती है और उक्त साधुको एक धर्मान्तरायसे भिन्न दूसरी क्रिया नहीं लगती यह बात यथार्थ है । यहां भगवतीजीके मूल पाठ में साधुकी नासिकामें लटके हुए अर्शके छेद न करने वैद्यको क्रिया लगना बतलाया है क्रियायें दो प्रकार की ठाणाङ्ग सूत्रमें कही गई हैं। शुभ और अशुभ परन्तु इस मूल पाठमें शुभ अथवा अशुभ किसी एक क्रियाका नाम न लेकर समुच्चय रूपसे कहा है कि साधुकी नासिकामें लटके हुए अर्शके छेदन करने वाले वैद्यको क्रिया लगती है। इसका खुलासा करते हुए टीकाकार बतलाते हैं कि साधु की नासिक में लटके हुए अर्शको जो वैद्य धर्म बुद्धिसे छेदन करता है उसको तो शुभ क्रिया (पुण्यकी क्रिया ) लगती है और जो लोभ आदिसे छेदन करता है उसको अशुभ क्रिया (पाप) होती है। वह टीका यह है ' ३७८ “तंचानगारं कृत कायोत्सर्ग लम्बमानार्शसमद्राक्षीत् । ततश्चार्शसांछेदनार्थमनगारं भूम्यां पातयति । नापातितस्यार्शश्छेदः कर्तुं शक्यत इति । तस्य वैद्यस्य क्रिया व्यापार रूपा साच शुभा धर्म बुद्धया छिन्दानस्य । लोभादिनात्व शुभा क्रिया तस्य भवति । यस्यसाघोरर्शा सिछिद्यन्ते नो तस्य क्रिया भवति निर्व्यापारत्वात् । किं सर्वथा क्रियाया अभावो नैव मित्याह नन्नत्थेत्यादि । न इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्र कस्माद्धर्मान्तरायाद् धर्मान्तराय लक्षणा क्रिया तस्याऽपि भवतीतिभावः । धर्मान्तरायश्च शुभध्यानविच्छेदा दर्शश्छेदानुमोदनाद्वः इति” • अर्थात् कायोत्सर्ग किये हुए अनगारकी नासिकामें लटकते हुए अर्शको देखकर उसका छेदन करनेके लिये कोई वैद्य साधुको नीचे डाले ( क्योंकि नीचे डाले बिना अर्श का छेदन नहीं किया जा सकता ) और नीचे डालकर धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श छेदन करे तो उस वैद्यकी क्रिया शुभ समझनी चाहिये । अर्थात् उसको शुभ क्रिया ( पुण्यकी क्रिया) लगती है । तथा वह यदि लोभ आदिके द्वारा अर्शका छेदन करे तो उसको अशुभ क्रिया लगती है परन्तु जिसका अर्श काटा जाता है उस मुनिको एक धर्मान्तराय के सिवाय दूसरी क्रिया नहीं लगती क्योंकि वह मुनि व्यापार रहित है और वह धर्मान्तराय रूप क्रिया भी मुनिके शुभ ध्यानके विच्छेद होनेसे और अर्श छेदनके अनुमोदन करनेसे लगती है अन्यथा नहीं । यहां टीकाकार भगवतीके उक्त पाठ का अभिप्राय बसलाते हुए लिखते हैं कि जो वैद्य धर्म बुद्धिसे साधुका अर्श छेदन करता है उसको शुभ क्रिया यानी पुण्यकी क्रिया बनती है तब फिर सुभद्रा सतीने धर्म बुद्धिसे जो जिन कल्पी मुनिकी आंख से निका निकाला था उसमें सुभद्रा सतीको पाप कैसे हो सकता है ? तथा आगमें जलते हुए Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy