________________
मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
दान देकर अपना संसार परिमित किया था यह भी इसके सम्यग्दृष्टि होनेका साधक है। यद्यपि भ्रमविध्वंसनकारने मिथ्याष्टिका भी संसार परिमित होना लिखा है परन्तु यह बात शास्त्र विरुद्ध है। जबतक अनन्तानुवन्धी क्रोध मान माया और लोभका क्षयोपशम या उपशम नहीं होता तबतक संसार परिमित नहीं होता। अनन्तानुवंधी क्रोधादिका यही अर्थ है कि वह अनन्त संसारका अनुबंध करता है। उसके होते हुए संसार परिमित हो जाय यह बात असंभव है। ठाणाङ्ग सुत्रकी टीकामें "अनन्तानुवंधी" शब्द का अर्थ इस प्रकार लिखा है “अनन्तं भवमनुवघ्नात्यविच्छिन्नंकरोतीत्येवंशीलोऽनन्तानुवन्धी” जो धारा प्रवाह विच्छेदरहित अनन्तकाल तक संसारको उत्पन्न करता है उसे "अनन्तानुवन्धी” कहते हैं।
. अनन्तानुवंधी क्रोधादि जबतक सम्यक्त्वकी प्राप्ति नहीं होती तबतक नष्ट नहीं होता और उसके रहते रहते संसारका समुच्छेद नहीं होता इसलिए सुमुख गाथापतिमें अनन्तानुवन्धी क्रोधादिका क्षयोपशम या उपशम होना अवश्य ही मानना पड़ेगा और उसके मान लेनेपर सुमुख गाथापतिका सम्यग्दृष्टि होना अपने आप ही सिद्ध हो जाता है। अतः सुमुख गाथापतिको मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे संसार का परिमित होना, बतला कर उसे मोक्ष मार्गमें कायम करना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिए।
(बोल १५ वां) (प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ८ के ऊपर मिथ्यात्व दशाकी क्रियासे संसार परिमित होना सिद्ध करनेकेलिए लिखते हैं कि-"वली मेघकुमाररो जीव पा छिले भवे हाथी सुसलारी दया पाली परीच संसार मिथ्यात्वी थके कियो।"
इसका क्या समाधन ? (प्ररूपक)
हाथीका भव पाया हुआ मेघ कुमारका जीव शशक आदि प्राणियोंकी प्राणरक्षा करते समय सम्यग्दृष्टि था मिथ्यादृष्टि नहीं यह बात ज्ञाता सूत्रके मूलपाठसे सिद्ध होती है। उस मूलपाठमें हाथीको साक्षात् सम्यग्हष्टि कहा है वह पाठ निम्नलिखित है:
'तंजइ ताव तुमं मेहा तिरिक्खजोणियभावमुवागएणं अपडिलद्धसंमत्तरयणलभेणं सेपाए पाणाणुकम्पयाए जाव अन्तराचेव सन्धारिए णोचेवणं णिक्खित्ते"
ज्ञाता अध्यनन १)
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com