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लपध्यधिकारः।
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इस टीकाका नाम लेकर शीतल लेश्याका प्रयोग करने में प्रमाद सेवन बतलाना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये।
(बोल ८ वां) वास्तवमें भीषगजी और जीतमलजीका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है। लब्धि का प्रयोग न करके चाहे दूसरे उपायसे भी जीव रक्षा की जाय तो भी ये लोग उसमें पाप ही कहते हैं। किसी मरते प्राणी पर दण लाकर उसकी रक्षा करनेको ये लोग मोह अनुकम्पा, सावद्य अनुकम्पा और एकान्त पाप कहते हैं। भगवान महावीर स्वामी लब्धि का प्रयोग न करके यदि उपदेश द्वारा भी गोशालककी प्राण रक्षा करते तो भी इनके मतानुसार भगवानको एकान्त पाप ही होता। भीषणजीने लिखा है कि जीवरक्षा करनेके अभिप्रायसे उपदेश देना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है यह अन्य तीथियोंका सिद्धान्त है' जैसे कि-"केई एक अज्ञानी इमि कहे, छ: कायारा काजे हो देवां धर्म उपदेश। एकन जीवने समझावियां, मिट जावे हो घणा जीवांरा क्लेश। छ: कायरे घरे शान्ति हुवे, एहवा भाषे हो अन्य तीर्थी धर्म। त्यां भेद नपायो जिन धर्मरो, तो भूल्या हो उदय आया अशुभ कर्म । (शि० हि० शि० ढाल ५)
अर्थात् कई अज्ञानी कहते हैं कि छः कायके जीवोंके घरमें शान्ति होने के लिये वे धर्मका उपदेश करते हैं । वे कहते हैं कि “एक जीवको समझा देनेसे बहुत जीवोंका क्लेश मिट जाता है परन्तु छः कायके घरों में शान्ति होनेके लिये उपदेश देना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है । यह अन्य तीर्थी धर्मका सिद्धान्त है अतः वे भूले हुए हैं और उनको अशुभ कर्मका उदय हुआ है।
इस ढालमें साफ साफ भीषणजीने मरते जीवकी रक्षाके लिये उपदेश देना जैन धर्मसे विरुद्ध बतलाया है और भ्र० पृ० १२० पर जीतमलजीने लिखा है
श्री तीर्थकर देव पोताना कम खपावा तथा अनेराने तारिवाने अथै उपदेश देवे इम का पिण जीव बंचावा उपदेश देवे इम कहो नहीं"
__यह लिख कर जीतमलजीने जीव रक्षाके लिये उपदेश देना जैन धर्मसे विरुद्ध ठहराया है ऐसी दशामें इन लोगोंका लब्धिकी चर्चा करना व्यर्थ है जब कि उपदेश द्वारा भी जीव रक्षा करना इनके मतमें पाप है तब फिर दूसरे उपायोंसे तो कहना ही क्या है वह तो अवश्य ही एकान्त पाप है। शीतल लेश्याके प्रयोग करने में जो इन्होंने उत्कृष्ट पांच क्रियाका लगना बतलाया है वह केवल मूढ़ लोगोंको बहकाने मात्रके लिये है।
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