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अनुकम्पाधिकारः।
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रणादि सूत्रोंमें जीवोंकी रक्षा करना गुण कहा गया है और गुणका उपार्जन करनेके लिये इस गाथामें साधुको जीवनरक्षा करना कहा है इसलिये जो साधु उपदेश आदिके द्वारा मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करता है वह गुणका उपार्जन करता है पापका उपार्जन नहीं करता अतः इस गाथाका नाम लेकर मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये उपदेश देने में एकान्त पाप कहना अज्ञान है।
इस गाथाकी समालोचनामें भ्रमविध्वंसनकारने साधुके भोजनको स्वतः व्रतमें बतलाया है यह भी इनकी भारी भूल है यदि भोजन करना स्वतः ब्रतमें है तो जैसे अधिकसे अधिक उपवास करना उत्तम है उसी तरह अधिकसे अधिक भोजन करना भी साधुके लिये गुण होना चाहिये । जो साधु अधिकसे अधिक और वार वार भोजन करे वह जीतमलजीके हिसाबसे बहुत ही उत्तम समझा जाना चाहिये । जैसे अधिकसे अधिक उपवास करने वाला साधु उत्कृष्ट व्रतधारी समझा जाता है उसी तरह अधिक से अधिक भोजन करनेवाला साधु जीतमजोलके मतमें उच्चश्रेणिका व्रतधारी समझा जाना चाहिए। परन्तु शास्त्र ऐसा नहीं कहता शास्त्र तो साधुको कारणवश आहार करनेका आदेश देता है और और अकारणसे तथा बार बार अधिक आहार करनेवाले साधुको पाप भमण कहता है इसलिए साधुका भोजन करना उपवासादिकी तरह साक्षात् व्रतमें नहीं है उसे स्वत: ब्रतमें गिनना अज्ञानका परिणाम है। साधुका कारणवश आहार करना उसके व्रतका उपकारक है इसलिए वह अव्रतमें नहीं है और उपवासादिकी तरह वह साक्षात् व्रत स्वरूप भी नहीं है अतः साधुके भोजनको उपवासादिको तरह साक्षात् ब्रत स्वरूप वतलाना अज्ञानियोंका कार्य है।
जैसे साधुका आहार करना उसके ब्रतका उपकारक होनेसे अप्रतमें नहीं है उसी तरह बारह व्रतधारी श्रावक का भोजन भी उसके व्रतका उपकारक होनेसे अप्रतमें नही है । श्रावकको अव्रतकी क्रिया लगती भी नहीं है यह विस्तारके साथ पहले कहा जा चुका है अत: साधुके आहारको उपवासादिकी तरह साक्षात् प्रतमें, और श्रावकके आहारको अनतमें मानना मिथ्यात्वका परिणाम समझना चाहिये।
इसी तरह मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेसे असंयम जीवनकी इच्छा बतलाना भी मिथ्या है हिंसा करके जीवित रहनेकी की इच्छा करना असंयम जीवनकी इच्छा करना, या उसका अनुमोदन करना है रक्षाके साथ जीवित रहनेकी इच्छा करना असंयम जीवनकी इच्छा नहीं है अतः मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करनेसे असंयम जीवनकी इच्छा बतलाना भ्रमविध्वंसनकारका एकान्त मिथ्या है।
(बोल वां १५ समाप्त)
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