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________________ ३०८ सद्धर्ममण्डनम् । जीतमलजी जो भगवान को दोषका प्रतिसेवी बतलाते हैं यह इनका जीवरक्षाके साथ द्रोह रखनेका फल समझना चाहिये। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें कभी भी दोषका प्रतिसेवन नहीं किया था इस विषयमें कोई शास्त्रका प्रमाण बतलाइए ? (प्ररूपक) आचारांग सूत्रमें स्पष्ट लिखा है कि भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें स्वल्प भी पाप और एकवार भी प्रमाद नहीं किया था। वह गाथा यह है: "णचाणं से महावीरे गोविय पावगं सयमकासी अन्नेहिंवा कारित्था करतंवि नाणुजाणिस्था" (आचारांग श्रु० १ अ० ९ उ० ४ गाथा ८ ) (टीका) "किञ्च ज्ञात्वा हेयोपादेयं स महावीरः कर्मप्रेरणसहिष्णुः नाऽपिच पापकं कमस्वय मकाषीत् । नाप्यन्यैरचीकरत् । नचक्रियमाण मपरैरनुज्ञातवान" अर्थात् त्यागने और संग्रह करने योग्य वस्तुको जानकर कर्म की प्रेरणाको सहन करने में समर्थ भगवान महावीर स्वामीने न तो स्वयं पाप कर्म किया न दूसरेसे कराया और करते हुएको अच्छा जाना। यह उक्त गाथाका टीकानुसार अर्थ है । इसमें स्पष्ट लिखा है कि भगवान महावीर स्वामीने छमस्थवास्थामें न स्वयं पाप किया न दूसरेसे कराया और न पाप करते हुएको अच्छा जाना । अतः गोशालक की प्राणरक्षा करनेसे भगवान को पाप लगने की प्ररूपणा मिथ्या समझनी चाहिये ।। ____ यदि गोशालककी प्राणरक्षा करना पाप होता तो इस गाथामें यह कैसे कहा जाता कि भगवान ने छदमस्थावस्थामें कभी भी पापका सेवन नहीं किया था। तथा आगे चल कर इसी उद्देशेकी १५ वी गाथा में कहा है कि भगवान महावीर स्वामीने छद्मस्थावस्थामें कभी भी प्रमादका सेवन नहीं किया था। वह गाथा यह है: "अकसाई विगयगेही य सहरूवेसु अमुच्छि ए झाई । छउमत्थोऽवि परकम माणो नष्पमा सवि कुव्वीस्था" (आचारांग श्र० १ ० ९ उ० ४ गाथा १५ ) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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