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प्रायश्चित्ताधिकारः।
३०९ (टीका)
___ "नकषायी अकषायी तदुदयापादित ध्र कुट्यादि कार्य्या भावात् । तथा विगतो गृद्धिः गायं यस्यासौ विगत गृद्धिः तथा शब्दरूपादिषु इन्द्रियार्थेषु अमूच्छितो ध्यायति मनोऽनुकूछेषु नराग मुपयाति नापीतरेषु द्वेषवशगोऽभूत् । तथा छद्मनि ज्ञान दर्शना वरणीय मोहनीयान्तरायात्मके तिष्ठतीति छद्मस्थः इत्येवं भूतोऽपि विविध मनेक प्रकारं सदनुष्ठाने पराक्रममाणो प्रमाद कायादिकं सदपि न कृतवानिति" अर्थ :
जिसमें कषाय नहीं है वह अकषायी कहलाता है। भगवान महावीर स्वामी अकषायी थे क्योंकि कषायके उदय से उन्होंने किसी पर भी अपनी ध्र कुटि. टेढ़ी नहीं की थी। भगवान महावीर स्वामी, अनुकूल शब्द आदि विषयों में राग और प्रतिकूलमें द्वेष नहीं करते थे। वह शब्दादि विषयोंमें आसक्त नहीं होकर रहते थे। यद्यपि भगवान छास्थ यानी ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मों में स्थित थे तथापि वह विविध प्रकारके शुभ अनुष्ठानमें ही प्रवृत रहते थे। उन्होंने एक वार भी कषायादि रूप प्रमादका सेवन नहीं किया था। यह इस गाथाका टीकानुसार अर्थ है।
इसमें छग्रस्थावस्थामें भगवान महावीर स्वामीका एक वार भी प्रमादका सेवन करना वर्जित किया है अत: जो लोग गोशालककी प्राणरक्षाको प्रमादका सेवन बतलाते हैं वे प्रत्यक्ष उत्सूत्र वादी मिथ्यादृष्टि हैं उनके भ्रमजालमें पड़ कर भगवान महावीर स्वामीको प्रमादका सेवी बतलाना अज्ञान है ।
[बोल ३ समाप्त ]
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार आचारांग सूत्रको इस गाथा को लिख कर इसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ ईहां गणघरां भगवान ग गुग वर्णन कीधा त्यांगुणामें अवगुणाने किम कहे गुणोंमें तो गुणाने इन कहे (भ्र० पृ. २३१ )
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
आचारांग सूत्रकी पूर्वक्ति गाथाओंमें भगवान के गुणोंका. वर्णन मात्र ही नहीं किन्तु स्वल्प भी पाप करने और एक वार भी प्रमाद सेवन करने रूप दोषका निषेध भी किया है। अतः इन गाथाओं में केवल भगवान के गुणोंका वर्णन मात्र बतलाना
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