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________________ ४६४ सद्धर्ममण्डनम्। "ते अवधिज्ञान रहितने असन्नीभूत कह्यो पिण असन्नीरो भेद न पावे तिम नेरइयाने असन्नीभूत कह्या पिण असन्नीगे भेद न पावे । ए नेरइया अने देवताने असन्नी कह्या ते संज्ञावाची छै । जे अवधि विभंग रहित नेरइयानो नाम असंज्ञी छ । जिम विशिष्ट अवधि रहित मनुष्य निर्जरया पुद्गल न देखे तेहने पिण असन्नीभूत करो" (भ्र० पृ० ३३७) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) गर्भज मनुष्यको शास्त्रमें जगह जगह संज्ञीभूत कहा है और पन्नावणा सूत्रमें उसे असंज्ञीभूत भी कहा है, इससे संशय उत्पन्न होता है कि शास्त्रमें जब कि जगह जगह गभज मनुष्यको संज्ञीभूत कहा है तब पन्नावणा सूत्र में उसे असंज्ञीभूत क्यों कहा ? इसका समाधान यह किया जाता है कि पन्नावणा सूत्र में जो गर्भज मनुष्यको मसंज्ञीभूत कहा है उसका अभिप्राय अवधिज्ञान रहित होना है संज्ञीका विरोधी असंज्ञी होना नहीं है क्योंकि ऐसा माननेसे पन्नावगा सूत्रके साथ दूसरे सूत्रोंका विरोध पड़ता है अतः विशिष्ट अवधि ज्ञान रहित होनेकी अपेक्षासे ही पन्नावणामें गर्भज मनुष्य को असंज्ञी भूत कहा है संज्ञोका विरोधी असंज्ञी होनेसे नहीं परन्तु यह दृष्टांत, असंज्ञीसे मर कर नारकि भुवनपति ओर व्यन्तर देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवोंमें नहीं घटता है क्यों कि उन जीवोंको सभी जगह असंज्ञो हो कहा है संज्ञोभून कहीं नहीं कहा है। यदि किसी जगह उन्हें संज्ञी भी कहा होता तो मनुष्य के विषयमें कहेहुए पन्नावणा सूत्रके उक्त पाठका दृष्टान्त देकर नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके भेदका निषेध किया जा सकता था परन्तु असंज्ञासे मर कर नारकि आदिमें उत्पन्न होनेवाले जीवोंको कहीं भी संज्ञो नहीं कहा है अतः पन्नावणा सुत्रका दृष्टांत देकर नारकि भुवनपति और व्यन्तर देवों में मसंज्ञो के अपर्याप्त भेद को न मानना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये। (बोल २ समाप्त) (प्रेरक) ___ भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३३९ पर पन्नावणा पद ११ के मूलपाठको लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं ___"Aथ अठे पिण कह्यो-न्हाना वालक वालिका मनपटुता पण न पाम्यो विशिष्ट ज्ञान रहितने सन्नी न कहो पिण जीवरो भेद तेरमों छै तिणमें असन्नीरो भेद न थी तिम नेरइयाने असन्नीभूत कह्या पिण असन्नीरो भेद न थी' (भ्र० पृ० ३३९) Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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