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सद्धर्ममण्डनम्।
_अर्थात् जो पुरुष तत्वको जाननेवाले महा पूज्य कर्मको विदारण करनेमें समर्थ सम्यग्दर्शी हैं उनके तप, दान, अध्ययन और नियमादि सभी परलोक सम्वन्धी कार्य शुद्ध और कर्मक्षयके कारण हैं।
- इस गाथामें सम्यग्दी पुरुषके परलोक सम्बन्धी तप दान अध्ययन और नियमादिरूप कार्यको शुद्ध और कर्मक्षयका कारण कहा है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि सम्यग्दी पुरुषोंका ही परलोक सम्बन्धी कार्य मोक्षमार्गमें है मिथ्यादृष्टिका नहीं क्योंकि इसके पूर्व गाथामें मिथ्यादृष्टिके इन्ही कार्योको अशुद्ध और कर्मबन्धका कारण कहा है परन्तु कईएक मिथ्यादृष्टि यह कहते हैं कि इस “ गाथामें सम्यग्दृष्टिकी शुद्ध यानी परलोक सम्बन्धी क्रियाओंका वर्णन है और इसकी पूर्व गाथामें मिथ्यादृष्टिकी अशुद्ध यानी संग्राम कुशीलादिको अशुद्ध कहा है इसलिये मिथ्यादृष्टिकी बालतपस्या आदि पारलौकिक क्रियाएं मोक्षमार्गमें ही हैं " यह कहने वाले इन गाथाओंका अर्थ नहीं समझते । यदि इन दोनों गाथाओंका यही तात्पर्य हो कि मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि इन दोनों ही की तप अध्ययनादि क्रियाएं शुद्ध हैं तो फिर यहां दो गाथा लिखने की आवश्यकता ही नहीं है केवल एकही जगह यह कह देते कि संग्राम कुशीलादि क्रियायें अशुद्ध और कर्मवन्धके कारण होती हैं। तथापि अलग अलग जो यहां दो गाथाएं आई हैं उनका तात्पर्य सम्यग्दृष्टि और मिथ्यादृष्टिकी पारलौकिक क्रियाओंमें भेद दर्शाना है। वह भेद यही है कि मिथ्यादृष्टिकी तपोदानाध्यानादि पारलौकिक क्रियाएं अशुद्ध और कर्मवन्धके कारण हैं क्योंकि वे अज्ञान तथा मिथ्यात्वपूर्वक की जाती हैं। और सम्यग्दृष्टि की ये ही क्रियाएं शुद्ध और कर्मक्षयके कारण हैं क्योंकि वे सम्यग्ज्ञानके साथ की जाती हैं और यही पात दर्शानान्तर सम्मत भी है। अतः इन दोनों गाथाओंका अन्यथा तात्पर्य्य बतला कर मिथ्यादृष्टि अज्ञानीकी क्रियाको मोक्षमार्गमें ठहराना अज्ञानका परिमाण है।
___बोल २६ वां
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्र० पृष्ठ २७ के ऊपर लिखते हैं “ मिथ्यात्व छै जेहने तिणने मित्यात्वी कयो तेहने कतियक श्रद्धा संउली छै अने केई एक बोल ऊधा छै तिहां जे बोल ऊंधा तेतो मिथ्याथ्यात्व अने जे केतला एक बोल सली श्रद्धारूप छै ते प्रथम गुण ठाणो छै। मिथ्यात्वीना जेतला गुणते मिथ्यात्व गुण ठाणो छै"
इसके आगे लिखते हैं_. “तिवारे कोई कहे प्रथम गुण ठाणे किसा बोल संवला छ। तेहनो उत्तर-जे मिथ्यात्वी गायने गाय श्रद्ध मनुष्यने अनुष्य श्रद्ध दिनने दिन श्रद्ध सोनोने सोने अद्ध इत्यादि जे सउली श्रधा छ ते क्षयोपशम भाव छ” (भ्र० पृ० २७-२८) .
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