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सद्धर्ममण्डनम् ।
अर्थ-धर्म दो प्रकारका है एक श्रुत और दूसरा चारित्र ।
श्री
सम्यग्ज्ञान, दर्शन, आठ ज्ञानाचार और आठ सम्यक्त्वके आचार धर्म में माने जाते हैं। साधु धर्म, तथा गृहस्थ धर्मके मूलगुण एवं आठ चारित्रके आचार, चारित्र धर्ममें कहे गये हैं । इस प्रकार श्रुत और चारित्र ये दो ही वीतरागकी आज्ञाके धर्म हैं । इनसे भिन्न कोई तीसरा धर्म, वीतराग भाषित या वीतरागकी आज्ञाका धर्म नहीं है । इन्हीं श्रुत और चारित्र धर्मोका आराधक पुरुष वीतरागकी आज्ञाका आराधक है । की आज्ञाराधनाके तीन भेद भगवती सूत्रमें कहे हैं वहपाठ - " कतिविहाणं भन्ते ! आराहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिविहा आराहणा पण्णत्ता तंजहा नाणाराहणा दंसणाराहणा चारिता राहणा । णाणाराहणाणंभन्ते ! कतिविहा पण्णत्ता गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता तंजहाउक्कोसिया मज्झिमा जहण्णा । दंसणाराहणाणं भन्ते ! एवंचेव तिविहावि एवं चारिताराहणावि"
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( भगवती शतक ८ उद्देशा १० ) अर्थ - हे भगवन्! आराधनाके भेद कितने होते है ?
(उत्तर) हे गोतम ! आराधनाके भेद तीन हैं, ज्ञानाराधना ( ज्ञानकी आराधना ) दर्शनाराधना ( दर्शनकी आराधना ) और चारित्राराधना ( चारित्रकी आराधना ) ।
(प्रश्न ) हे भगवन् ! ज्ञानाराधनाके कितने भेद होते हैं ?
(उत्तर) हे गोतम ! ज्ञानाराधनाके तीन भेद हैं, उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य । इसी तरह दर्शनाराधना और चारित्राराधनाके भी तीन तीन भेद समझने चाहिये ।
यहां भगवान्ने आराधनायें तीन प्रकारकी कही हैं ज्ञानाराधना, दर्शनाराधना और चारित्राराधना । इसलिये इन्हींका आराधक पुरुष मोक्ष मार्ग तथा वीतरागकी आज्ञाका आराधक समझा जाता है । परन्तु इनकी आराधना नहीं करके जो किसी दूसरे धर्मका आराधन करता है वह मोक्ष मार्ग तथा वीतरागकी आज्ञाका आराधक नहीं है । ऊपर बताये हुए मूलपाठ उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्यके भेदसे जो तीनों आराधनाओंको तीन तीन प्रकारका कहा है उनमें किस भेदका आराधक पुरुष कितना भव करता है यह निर्णय भी इसी जगह भगवतीजीके मूलपाठमें कर दिया है वह पाठ
“उक्कोसियाणं भन्ते ! णाणाराहणं आहेत्ता कतिहि भवग्गहणे हि सिज्झति जाव अन्तं करेंति ? गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव
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