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[ ३९ ] बोल १२ वां पृ० ३५३ से ३५४ तक
पन्नावणा सूत्रकी मलयगिरि टीकामें मनः पर्य्यवज्ञानियोंमें कृष्ण लेश्या बताई • गई है परन्तु वह टीका भगवती सूत्र की टीकासे विरुद्ध होनेसे अप्रामाणिक है । बोल १३ वां पृ० ३५४ से ३५८ तक
संघादिकी रक्षा करने के लिये वैक्रिय लब्धिका प्रयोग करने वाले साधुको शास्त्रकारने भवितात्मा अनगार कहा है । षड्विध लेश्याओं का स्वरूप समझाने के लिये आवश्यक सूत्र की टीका में जामुनके फर खाने की इच्छा करने वाले छ: पुरुषों का उदाहरण दिया है ।
इति लेश्या प्रकरणम् । अथ वैयावृत्यधिकारः ।
बोल १ पृष्ठ ३५९ से ३६० तक
जैसे वन्दनार्थ किया जाने वाला वैक्रिय समुद्रघात वन्दनसे भिन्न है उसी तरह हरिवेश मुनिका व्यावच के लिये यक्षसे किया जाने वाला ब्राह्मण कुमारोंका ताडन मुनि के व्यावचसे भिन्न है ।
बोल दूसरा पृष्ठ ३६० से ३६१ व
सूर्य्याभने नाटकको भक्ति स्वरूप नहीं कहा है इस लिये नाटकको भक्ति मानकर उसे सावध बताना अज्ञान है ।
बोल तीसरा पृष्ठ ३६१ से ३६२ तक
गुरु आदि चितमें शान्ति उत्पन्न करनेसे ज्ञाता सूत्रमें तीर्थंकर गोत्र बांधना कहा है। गुरु केवल साधु ही नहीं होते माता पिता ज्येष्ठ वन्धु आदि भी होते हैं । बोल चौथा पृष्ठ ३६२ से ३६५ त
सुय० ० १ ० ३ ० ४ गाथा ६।७ में जो लोग विषय सुख भोगनेसे मोक्षकी प्राप्त मानते हैं उनके सिद्धान्त का खण्डन है परन्तु साधुसे इतर प्राणीको साता देनेसे धर्म पुण्य होनेका निषेध नहीं है ।
बोल पांचवां पृष्ठ ३६६ से ३६८ तक
गृहस्थसे साता पूछना तथा उसका व्यावच करना साधुके लिये अनाचार है गृहस्थ के लिये नहीं ।
बोल छठ्ठा पृष्ठ ३६८ से ३७१ त
व सूत्र में दशविध व्यावच कहे गये हैं उनमें साधर्मिक व्यावच भी शामिल हैं । प्रवचनके द्वारा श्रावक भी श्रावकका साधर्मिक होता है अतः उसका व्यावच भी साधर्म के लिये निर्जराका हेतु है ।
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