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________________ अनुकम्पाधिकारः। २१५ लिप्त नहीं होते थे। किन्तु ममता और सांसारिक लाभ की इच्छा तथा दोष रहित होकर वह सदा और सर्वत्र एकान्तका ही अनुभव करते थे। यदि कोई कहे कि एकाकी अवस्था और शिष्यादिकोंके साथ रहने की अवस्थामें प्रत्यक्ष ही भेद दृष्टिगोचर होता था फिर भगवान् लोगोंके मध्यमें रहते हुए एकान्तका अनुभव कैसे करते थे ? तो इसका उत्तर यह है कि एकाकी अवस्था और शिष्यादिके साथ रहने की अवस्थामें जो भेद दृष्टिगोचर होता था वह वाह्य भेद था आन्तरिक नहीं क्योंकि शिष्यादिकोंके साथ रहने पर भी भगवानकी पहलेके समान हो शुक्ल ध्यान रूपा लेश्याथी और वह अपने शरीरका पूर्ववत् ही संस्कार नहीं करते थे तथा अशोकादि आठ प्रतिहारियोंके साथ रहते हुए भी भगवान् गर्व रहित थे एवं राग द्वेषका सर्वथा अभाव हो गया था इस लिये मनुष्योंके साथ रहने पर भी भगवान् एकान्तका ही अनुभव करते थे। किसी भाचार्य्यने कहा है कि यदि तुमने राग द्वषको जीत लिया है तो वनमें जाकर क्या करोगे ? और यदि राग द्वेषको नहीं जीता है तो जंगलमें जाकर क्या करोगे। तात्पर्य यह है कि वाह्याचार कल्याणका कारण नहीं किन्तु आन्तरिक कपाय आदिका विजय ही मुक्ति साधक है । यह उक्त गाथा का टीकानुसार अर्थ है। इस गाथामें लिखा है कि भगवान् महावीर स्वामी त्रस औरः स्थावर सम्पूर्ण प्राणियोंके क्षेम यानी रक्षा करने वाले थे। और टीकाकारने भी लिखा है कि "क्षेमं शान्तिः रक्षा तत्करण शीलः शेमंकर:” अर्थात् भगवान् सब प्राणियोंका क्षेम शान्ति, यानी रक्षा करते थे । इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि भगवान् मरते प्राणीकी प्राणरक्षाके लिये भी धर्मोपदेश देते थे केवल हिंसकको हिंसाके पापसे छुड़ानेके लिये ही नहीं। यदि कोई कहे कि हिंसाके पाससे वचा देना हो जीवकी रक्षा या शेम है मरनेसे बचाना नहीं, तो उसे कहना चाहिये कि इस गाथामें स्थावर जीवोंका भी क्षेम करने वाला भगवानको कहा है यदि वह मरते जोवकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश नहीं देते थे तो स्थावर जीवोंका शेम करने वाले वह क्यों कहे गये हैं ? क्योंकि स्थावर जीवोंमें उपदेश ग्रहण करने की योग्यता नहीं होती इस लिये हिंसाके पापसे बचाने के लिये उनको उपहेश देना नहीं घट सकता किन्तु उनकी प्राणरक्षाके लिये उपदेश देना ही घटता है अत: भगवान् मरते प्राणीकी प्राण रक्षाके लिये भी उपदेश देते थे यह: इस. गाथासे स्पष्ट सिद्ध होता है। कोई कोई अज्ञानी कहते हैं कि "हिंसकके हायसे असंयक्ति जीवको बचाना उपके असंयमका अनुमोदन करना है, और असंयमका अनुमोकन करवा साधुको नहीं कल्पता इस लिये हिंसके हाथसे मारे जाते हुए असंयति जीवकी प्राणरक्षा के लिये साधुको धर्मोपदेश नहीं देना चाहिये" उनसे कहना चाहिये कि साधु, असंयति Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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