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[ १७ ] पातञ्जल योगसूत्रसे भी उपयुक्त विषयका ही समर्थन होता है। इसमें संसार का मूलकारण अज्ञान बताया है, इससे स्पष्ट सिद्ध है कि जब तक आत्मामें अज्ञान है तब तक मोक्षकी आराधना या मोक्ष नहीं हो सकता। इसी विषय का आगे और भी खुलासा किया गया है
"विवेक ख्याति रविप्लवा हानो पायः” (सूत्र २६)
"मिथ्याज्ञानवासनयाऽन्तराभिभवो विप्लवस्तद्रहितो विवेकत: पुरुषसाक्षात्कारो मोक्षोपायः सवासनाविद्योन्मूलन द्वारेत्यर्थः ।" (भाष्य )
अर्थात् मिथ्याज्ञानके संस्कारोंसे आत्मामें एक प्रकारका विप्लव होता रहता है। वह विप्लव सम्यगज्ञान होने पर नष्ट होता है वही सम्यगज्ञान - आत्माके सच्चे स्वरूपका अवलोकन-मोक्षा उपाय है। यहां भी वही बात बताई गयी है जिसका उल्लेख हम ऊपर कर आये हैं। __इन सब उल्लेखोंसे भलीभांति सिद्ध है कि मोक्षकी सिद्धि के लिये सम्यग्दर्शनसम्यग्ज्ञान अनिवार्य हैं। प्रत्येक मठ में इनको सर्वप्रथम कारण माना है अत: इस विषयमें भी संदेह नहीं कि सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान होने पर ही मोक्षकी आकांक्षा होती है। उपनिषदोंके प्रमाणोंसे यह पहले ही स्पष्ट हो चुका है कि बिना सम्यगज्ञानके किये जाने वाले तपस्या आदि आचरण मोक्षके कारण नहीं हैं बल्कि संसारके हो कारण हैं।
ऊपर जो मान्यता प्रष्ट की गयी है ठीक वही जैन धर्मकी भी है। विना ज्ञान का किये जाने वाले तपको जैन परिभाषामें "बाल तप" कहते हैं और वह संसार का ही
कारण है।
प्रत्येक धर्मको ऐसी मान्यता होने पर भी आश्चर्यकी बात है कि थोड़े दिन पहले पैदा होने वाले भीषणजीने इनसे विरुद्ध एक विचित्र मत निकाला है। इन्होंने भारत वर्षके तमाम दर्शन-सिद्धांतोंका तखता ही उलट देने की चेष्टा को है। इनका मत है कि जो जीव, अपने स्वरूपको, बन्धको, और मोक्षको जानता ही नहीं वह भी मोक्ष की आराधना करता है। अर्थात् जिस व्यक्तिको यह भी ठीक नहीं मालूम है कि, मुझे रोग है या नहीं, है तो क्या रोग है, क्यों उत्पन्न हुआ है, कैसे दूर होगा, दूर होने पर क्या सुख दुःख होगा ? वह भी अपना रोग दूर कर सकता है । जो बात आज तक किसी ऋषि महर्षिको न सुझी थी वह महाशय भिक्खूजीको सूझी। इसीलिये वे कहते हैं कि मिथ्यादृष्टि जीव भी मोक्षका आराधक है। वस्तुत: यह सिद्धांत प्रत्येक दर्शन से, अनुभवसे और युक्तिसे सर्वथा वाधित है। जिसे जिस वस्तुका सम्यगज्ञान ही नहीं है वह उसकी प्राप्तिके लिये कापि प्रयत्न नहीं कर सकता। अगर कोई करता भी है तो
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