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सद्धर्ममण्डनम् ।
टीका पहले लिख दी गयी है। वहां साफ साफ लिखा है कि प्रमादी अप्रमादी सरागी
और वीतरागी ये चारो प्रकारके संयति कृष्णादि तीन अग्रशस्त भाव लेश्यामें नहीं होते । टीकाकारने कहा है कि
___"कृष्णादिषुहि अप्रशस्त भाव लेश्यासु संयतत्वं नास्ति'
अर्थात् कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयम नहीं होता । अतः कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयम मानना उक्त टीका और भगवती शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठसे विरुद्ध है।
यह स्मरण रखनेकी बात है कि कोई भी टीका स्वत: प्रमाण नहीं होती। टीका की प्रमाणता मूलपाठके आधीन है अतः जो टीका मूल पाठसे प्रतिकूलं है वह कदापि प्रमाण नहीं है । मलयगिरि टोका भगवतीके उक्त मूलपाठ और उसकी प्राचीन टीकासे विरुद्ध है इसलिये वह प्रमाण नहीं मानी जा सकती।
___ भ्रमविध्वंसनकारने पन्नावणा सुत्रका जो मूलपाठ लिखा है उसमें भी यह नहीं कहा है कि मनः पय्येव ज्ञानियोंमें भाव कृष्ण लेश्या पाई जाती है वहां सामान्य रूपसे कृष्ण लेश्याका होना लिखा है अत: वह कृष्ण लेश्या द्रव्यरूप है, भाव रूप नहीं क्योंकि भगवतीके मूलपाठमें साफ साफ संयतियोंमें कृष्णादि तीन भाव लेश्याओंका निषेध किया है उससे विरुद्ध पन्नावणा सुत्रमें संयसि पुरुषोंमें भाव कृष्ण लेश्याका स्थापन कैसे किया जा सकता है ? भगवती सूत्र अङ्ग है और पन्नावणा उपांग है। अङ्गमें कही हुई बात का उपाङ्ग सूत्रमें समर्थन किया जाता है खण्डन नहीं किया जाता। अत: पन्नावणा सत्र की साक्षी से संयतियों में भाव कृष्ण लेश्या का स्थापन करना अज्ञान
(बोल १२ वां समाप्त) लेश्या प्रकरणका सार यह है
कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें साधुता नहीं होती । तेजः पद्म और शुक्ल रूप भाव लेश्याओंमें ही साधुता होती है। इन विशुद्ध भाव लेश्याओंसे युक्त जो साधु, संघादिकी रक्षाके लिये वैक्रिय लब्धिका प्रयोग करता है उसे शास्त्रकारने भावितात्मा अनगार कहा है।
भगवती शतक ३ उद्देशा ५ में मूलपाठ आया है
"सेजहा नामए केइ पुरिसे असिचम्म पायं गाहाए गच्छज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा असिचम्मपायंहत्यकिञ्चगएणं
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