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सद्धममण्डनम् ।
और वीतरागी इन दोनों प्रकारके साधुओंमें तेजः पद्म लेश्यायें नहीं होतीं, यह नहीं कि सरागीमें तेजः पद्म रेश्या पाई जाती हैं और वीतरगीमें नहीं पाई जाती क्योंकि अष्टम नवम और दशम गुण स्थान वाले जीव भी सरागी ही होते हैं परन्तु उनमें तेजःपद्मलेश्या ये नहीं होती एकमात्र शुक्ल लेश्या ही होती है अत: जैसे तेजो लेश्या और पद्म लेश्यामें सरागी और वीतरागी इन दोनों प्रकारके ही साधुओं का होना निषेध किया है उसी तरह कृष्णादिक लेश्याओंमें सरागी वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी इन चारों प्रकारके संयतियोंके होनेका ही निषेध है। केवल भेद मात्र करनेका निषेध नहीं है। यदि कोई दुराग्रही यह नहीं मानकर सरागी और प्रमादीमें कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंका सद्भाव कहे तो उसे कहना चाहिये कि तुम सरागीमें तेज: पद्म लेश्याका होना क्यों नहीं मानते ? यदि वह सरागीमें तेजः पद्म लेश्याका होना स्वीकार कर ले तो फिर उसे अष्टम नवम और दशम गुण स्थान वाले साधुओंमें भी तेज: और पद्म लेश्याका सद्भाव मानना पड़ेगा क्योंकि ये भी सरागी हैं परन्तु यह बात शास्त्र विरुद्ध है अष्टमादि गुण स्थानोंमें एक मात्र शुक्ल लेश्या ही शास्त्र सम्मत है तेजः प्रद्म लेश्या नहीं। अत: जैसे तेजः पद्म लेश्या में सरागी और वीतरागीका भेद करना ही वर्जित नहीं किन्तु सरागी और वीतगगी दोनों प्रकारके साधुओंका होनेका निषेध है उसी तरह कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओं में सरागी और वीतरागी प्रमादी और अप्रमादी इन चार प्रकारके साधुओंके होनेका ही निषेध है केवल इनके भेद मात्रका निषेध नहीं है।
यदि कोई कहे कि तेजो लेश्या और पद्म लेश्यामें सरागी और वीतरागी दोनों ही प्रकारके साधुओंका निषेध है तो फिर संयमी पुरुषों में तेजो लेश्या और पद्म लेश्या नहीं होनी चाहिये तो इसका उत्तर यह है कि उक्त भगवतीजीके मूल पाठोंमें प्रमादी अप्रमादी सरागी और वीतरागी ये चार प्रकारके संयमी कहे गये हैं उनमें षष्ठ गुण स्थान वाले प्रमादी, सप्तम गुण स्थान वाले अप्रमादी और अष्टमसे दशम गुण स्थान पर्यन्त तक सरागी और एकादशादि गुण स्थान वाले वीतरागी माने गये हैं इस लिये षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले संयतियोंमें तेजः पद्म लेश्याके होनेका निषेध नहीं है क्योंकि यहां सरागी शब्दसे अष्टमादि गुण स्थान वाले संयति ही गृहीत होते हैं षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले नहीं उनको तो प्रमादी और अप्रमादी कह कर बतलाया है इस लिये षष्ठ और सप्तम गुण स्थान वाले संयतियोंमें तेजो लेश्या और पद्म लेश्याके होनेका निषेध नहीं किया जा सकता। जो लोग कृष्ण नील लेश्या वाले भगवतीजीके पूर्व लिखित पाठ में, कृष्णादिक तीन भाव लेश्याओंमें केवल प्रमादी अप्रमादी सगगी और वीतरागीके भेद होनेका ही निषेध मानते हैं उनके मतमें तेज: पद्म लेश्यामें भी सरागी और वीत
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