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लेख्याधिकारः।
रागीके भेदको ही वर्जित कहना चाहिये परन्तु सरागी साधुके अन्दर तेजो लेश्या और पद्म लेश्याके होनेका नहीं ऐसी दशामें जैसे वे लोग कृष्णादि तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें प्रमादी और सरामीका सद्भाव मानते हैं उसी तरह तेभो लेश्या और पद्म लेश्यामें अष्टमादि मुम स्थानाले सरागियों को भी क्यों नहीं मान लेते ? अतः जैसे माटमादि गुण स्थान वाले संयतियोंमें वे तेजो पद्म लेश्या नहीं मानते उसी तरह संयतियोंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्या भी नहीं माननी चाहिये।
____ यदि कोई कहे कि कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें संयति मात्रका निषेध करना इष्ट था तो शास्त्रकारने पदलाघवात् “संजया नभाणियव्वा" यही क्यों नही लिख दिया ? ऐसा लिखनेसे संयति मात्रका, कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंमें स्पष्ट निषेध हो जाता और पदका भी लाघव होता तो इसका उत्तर यह है कि शास्त्रकार वैयाकरणोंकी तरह पद लाघवके पक्षपाती नहीं थे जहां केवल "पाणाणुकम्पयाए" इतना कह देनेसे ही काम चल सकता था, वहां उन्होंने "पाणाणुकम्पयाए भूयानुकम्प्रयाए जीवानुकम्पयाए सत्तानुकम्पयाए" इत्यादि चार पदोंका प्रयोग किया है। उसी तरह यहां भी "संजया नभाणियन्वा' यह नहीं लिखकर “पमत्तापमत्ता सरागवीयरागा बभाणि यवा" यह लिखा है अतः इस पाठका टीका विरुद्ध और सम्प्रदाय विरुद्ध अर्थ करके साधुओंमें कृष्णादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना मिथ्या समझना चाहिये।
[बोल ३ ]
(प्रेरक)
भ्रम विध्वंसनकार पन्नावगा सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं
"इहां पिण कृष्ण लेशी मनुष्यरा तीन भेद कह्या छै संयति असंयति संयता संयति ते न्याय संयतिमें पिण कृष्णादिक हुवे"
इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
- पन्नावणा सूत्रके मूल पाठका नाम लेकर संयतियोंमें कृष्णादिक अप्रशस्त भाव लेश्याओंका स्थापन करना मिथ्या है। भगवती सूत्र अंग है और पन्नावणा सूत्र उपांग है इस लिये भगवती सूत्रके विरुद्ध पन्नावणा सूत्रमें संयतियोंके अन्दर कृष्णादिक तीन अप्रशस्त लेश्याओंका सद्भाव नहीं कहा जा सकता। अंगोंमें कही हुई बातका उपांग
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