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सद्धर्ममण्डनम् । नहीं है अतः प्रतिमाधारीके कल्पको ऐच्छिक कायम करके वीतरागकी आज्ञासे उसे बाहर बताना अज्ञानियोंका कार्य है।
(बोल ३७ वां समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ११५ के ऊपर भगवती शतक ७ उद्देशा १ का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं “अथ इहां पिण सामायकमें श्रावकरी आत्मा अधिकरण कही छै । अधिकरण ते छः फायरो शस्त्र जाणवो ते मांडे सामायक पोषामें तेहनी काया शस्त्र छै। ते शस्त्र तीखां कियां धर्म नहीं। वली ठाणाङ्ग ठाणे दश अवतने भाव शस्त्र कह्यो छै ते सामायकमें पिण वस्त्र गेहणा पूंजनी आदिक उपकरण अने काया ए सर्वे अबत छै तेहना यत्न कियां धर्म नहीं" इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
भगवती सूत्र शतक ७ उद्देशा १ में जैसे श्रावककी आत्मा अधिकरण कही है उसी तरह भगवती सुत्र शतक १६ उद्देशा १ में साधुकी आत्मा भी अधिकरणी कही गई है वह पाठ यह है:
"जीवेणं भन्ते ! आहारग सरीरं निवत्तिएमाणे किं अधिकरणी अधिकरणं वा पुच्छा ? गोयमा ! अधिकरणीवि अधिकरणं वि। सेकेण?णं जाव अधिकरणंवि । गोयमा ! पमादं पडुच्च सेतेण?णं जाव अधिकरणंवि"
(भगवती शतक १६ उ०१) अर्थः
(प्रश्न ) हे भगवन् ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव, क्या अधिकरिणी होता है या अधिकरण होता है ?
(उत्तर) हे गोतम ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव अधिकरणी भी होता है और अधिकरण भी होता है।
(प्रश्न) इसका क्या कारण है ?
(उत्तर) हे गोतम ! आहारक शरीरको उत्पन्न करता हुआ जीव, प्रमादकी अपेक्षा से अधिकरणी भी होता है और अधिकरण भी होता है।
इस मूलपाठमें प्रमादी साधुकी आत्माको प्रमादकी अपेक्षासे अधिकरण, और अधिकरणी कहा है और इस पाठकी टीकामें भी यही बात कही है वह टीका यह है:
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