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दानाधिकारः ।
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“दशथेरा पन्नत्ता तंजहा-ग्रामोरा, नगरसेरा, रहोरा, पसत्थारथेरा, कुलशेरा, गणरा, संघोरा, जाइशेरा, सुयोरा, परियायशेरा।
(ठाणाङ्ग ठाणा १०) टीकाः
"स्थायपन्ति दुर्व्यवस्थितं जनं सन्मार्गे स्थायपन्तीति स्थविराः तत्र ये प्रामनगर राष्ट्रषु व्यवस्थाकरिगो बुद्धिमन्त आदेयाः प्रभविष्णवस्ते तत्स्थविराः । प्रशासति शिक्षयन्ति येते प्रशास्तारः धर्मोपदेशकास्तेच ते स्थिरी करणास्थविराश्च प्रशास्तृस्थविराः । ये कुलस्य, गगस्य, सङ्घस्यच लौकिकस्य लोकोत्तरस्यच व्यवस्थाकारिण स्तद्भक्त श्च निग्राहका स्तेतथोच्यन्ते । जातिस्थविराः षष्ठिवर्ष जन्म पर्यायाः । श्रुतस्थविराः समवायाधङ्गधारिणः पर्यायस्थविराः विंशति वर्ष प्रत्रज्या वन्तइति" अर्थः
कुमार्गमें जाने वाले जनको जो सुमार्गमें स्थापन करते हैं वे स्थविर कहलाते हैं। जो ग्राम, नगर और राष्ट्रकी व्यवस्था करने वाले बुद्धिमान ग्राह्यवचन और प्रभावशाली हैं वे क्रमश: ग्रामस्थविर, नगरस्थविर और राष्ट्रस्थविर कहलाते हैं । जो धर्मका उपदेश देकर जनताको धर्ममें स्थिर करते हैं बे 'प्रशस्तृ स्थविर' कहलाते हैं। जो लौकिक और लोकोत्तर दोनों प्रकारके कुल, गण और सङ्घकी व्यवस्था करते हैं और उस व्यवस्थाके भङ्ग करने वाले मनुष्यको युक्त उपायोंसे रोकते हैं वे क्रमशः कुलस्थविर, गणस्थविर और सङ्घस्थविर कहे जाते हैं वे लौकिक और लोकोत्तर दो प्रकारके होते हैं। जिसकी अवस्था साठ वर्षकी हो गई है वे जातिस्थविर कहलाते हैं, जो समवायादि मङ्गोंको धारण करते हैं वे श्रुतस्थविर हैं जिनका प्रव्रज्या काल बीस वर्षका हो गया है वे पर्याय स्थविर कहे जाते हैं।
यहां मूलपाठ और टीकामें ग्राम धर्म आदि दश प्रकारके धर्मों की व्यवस्था करने वाले दश स्थविर कहे गये हैं ये दश ही स्थविर जनताको बुरे कर्मसे हटा कर सन्मार्गमें प्रवृत्त करते हैं इसलिए अपने अपने कार्यक्षेत्र में ये सभी अच्छे हैं कोई भी एकांतपापी नहीं हैं। जिस ग्राम, नगर या राष्ट्रमें उनके स्थविर नहीं होते उनकी सुव्यवस्था नहीं हो सकती और ग्राम नगर तथा राष्ट्रकी सुव्यवस्था हुए बिना वहांकी जनता सन्मार्गसे नहीं चल सकती परन्तु ये ग्रामस्थविर आदि प्रामधर्म, नगरधर्म और राष्ट्रधर्म आदिका निमर्माण करके वहांकी जनताको कुमार्गसे रोक कर सन्मार्गसे चलाते हैं और प्राम नगर तथा राष्ट्रमें चोरी जारी झूठ हिंसा आदि पापोंका प्रचार बन्द करते हैं अत: इन स्थविरोंको
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