SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 451
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनयाधिकारः। ४०१ इस पाठमें जाव शब्दसे जिस पूर्व पाठका संकोच किया गया है। वह पाठ यह है __"तएणं लोगंतिया देवता आसणाई चलिताईपासंति पासंतित्ता ओहि पाउजंति २ मल्लिं अरहं ओहिणा आभोऐति २। इमेयाख्वे अज्जत्थिए जाव समुप्पज्जित्था एवं खलु जम्बू द्वीवे दीवे भारए वासे मिथिलाए कुम्भगस्त मल्ली अरहा निक्खमिस्सामीत्ति मनं पहारेंति तंजीयमेयं तोय पच्चपन्न मणागयाणं लोगंतियाणं" इस पाठमें “जीयमेय" यह वाक्य आया है और पूर्व लिखित पाठमें जाव शब्द से इसी पाठका संकोच किया है। इस लिये उस पाठमें भी "जीय मेय" इस वाक्यका सद्भाव है । ऐसी दशामें लोकान्तिक देवताओंने जित आचारके अनुसार जो मल्लिनाथ जीको प्रतिबोध दिया है उसे भी भ्रम० कारके हिसाबसे सावद्य ही कहना चाहिये। यदि "मीयमेयं" इस पाठके होनेपर भी प्रतिवोध देना सावद्य नहीं है तो जित आचारके अनुसार जन्मते तीर्थंकरको इन्द्रका वन्दन नमस्कार भी सावय नहीं है। अब उक्त पाठ का पाठकोंके ज्ञानार्थ अर्थ किया जाता हैअर्थ : इसके अनन्तर लोकान्तिक देवताओंके प्रत्येकके आसन डोलने लगे । यह देखकर देवताओंने अवधि ज्ञानका प्रयोग करके अरिहत मल्लिनाथजीको समझा। पश्चात् उनके मनमें यह निश्रय उत्पन्न हुआ कि जम्बू द्वीपके भारतवर्षमें मिथिला नगरीके राजा कुम्भककी पुत्री भगवान मल्लिनाथजी दीक्षा लेनेका विचार कर रहे हैं । अतः भूत भविष्यत और वर्तमान कालका हमारा गित आचार है कि तीर्थकरोंके पास जाकर हम उनको प्रतिबोध देते हैं । इस आचारके अनुसार भगवान मल्लिनाथजीके पास भी जाना चाहिये । यह सोचकर लोकान्तिक देवताओंने ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात किया । और संख्यात योजना दण्ड निकाल कर उत्तर वैक्रिय शरीर. बनाया । उसे बनाकर वे देवता जम्वक देवोंकी तरह मिथिला नगरीके कुम्मक राजाके मकानपर भगवान मलिनाथजीके पास आये। वर्हा आकाशमें स्थित घृधूरू बजाते हुए उत्तम वस्त्र पहने हुये हाथ जोडकर मधुर वचनोंसे कहने लगे कि हे भगवन् ! हे लोकनाथ ! प्रतिवोध प्राप्त करो और धर्म तीर्थकी प्रवृत्ति करो जिसमें जीवोंको हित सुख और निःश्रेयसकी प्राप्ति हो। इसी प्रकार दो तीन बार कहकर और धन्दना नमस्कार करके लोकान्तिक देवता जहांसे आये थे वहीं वापस चले गये। यहां भी जित आचारके अनुसार ही लोकान्तिक देवताओंका मल्लिनाथ भगवाचको प्रतिवोध देना कहा है । फिर इसे भी भ्रमविध्वंसन कारको सावध ही समझना चाहिये। ५१ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy