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________________ लब्ध्यधिकारः। २९५ स्वहस्त पारितापनिकी क्रिया है और दूसरेके हस्तसे परिताप दिलाना "परहस्त पारितापनिको" क्रिया है। ___किलो जीवका घात करना “प्रागातियातिको' क्रिया है। यह भी द्विविध होतो है। (१) स्वहस्त प्रागातिपातिकी और (२) परहस्तप्रागातिपातिकी' । अपने हाथसे प्राणियोंका घात करना 'स्वहस्त प्राणातिपातिकी' है और दूसरेके हाथसे प्रागीका घात कराना 'परहस्तप्राणातिपातिको' क्रिया है। यह ठागाङ्गके उक्त मूल पाठका टोकानुपार अर्थ है। इसमें कायिको आदि पांच क्रियाओंका जो स्वरूप बतलाया है इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि किसो प्रागीकी रक्षा करने के लिये जो शोतल लेश्या प्रकट की जाती है उसमें ये क्रियाएं नहीं लातों किन्तु उग लेश्याका प्रयोग करके किसो जीवको हिंसा करनेमें लाती हैं। किसो जोव को घात काना प्रागातिपातिको क्रिया है यह क्रिया किसी जीव को रक्षा करनेमें कैसे ला सकती है ? क्योंकि जोवोंकी रक्षा करना उनका घात करना नहीं है। किसो जोवको ताइन आदि करनेसे "पारितापनिको” क्रिया लगती है परन्तु जो किसोका ताडन आदि नहीं करता है बल्कि उसको रक्षा करता है उस रक्षक पुरुषको पारिता पनिकी क्रिया किस प्रकार ग सकती है ? क्योंकि रक्षा करना परिताप देना नहीं है। किसी जीवपर द्वेष करनेसे प्राद्वेषिकी क्रियाका लाना बतलाया है अत: जो मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करता है उसको प्राद्वेषिकी क्रिया कैसे लग सकती है ? क्योंकि मरते प्रागोकी प्राण रक्षा करना उस पर द्वेष करना नहीं है। तलवार आदि घातक पदार्थो के बनाने और उनमें मूठ आदि जोड़नेसे 'आधिकरणिकी क्रियाका लगना कहा है । जो पुरुष किसी मरते प्राणीकी प्राण रक्षा करता है वह तलवार आदि घातक पदार्थो का निर्माण, या उनमें मूठ आदि नहों जोड़ रहा है फिर उसको 'आधिकरणिको क्रिया' कैसे लग सकती है ? मरते प्राणोकी प्राण रक्षा करना शरीरका दुष्प्रयोग नहीं किन्तु सुप्रयोग करना है अत: जो मरते प्राणोकी प्राण रक्षा करता है उसे कायिकी क्रिया भी नहीं लग सकती। इस लिये भगवान महावीर स्वामीने शीतल लेश्या प्रकट करके जो गोशालककी प्राणरक्षा की थी उसमें भगवान को क्रिया लगनेको बात मिथ्या है। स्वयं भ्रम विध्वंसनकारने भी पृष्ठ १८१ पर लिखा है : “अथ अठे वैक्रिय समुद्घात करो पुद्गल काढे ते पुद्गला सू जेतला क्षेत्रमें प्राण भूत जीव सत्वनी घात हुवे ते जाव शब्दमें ओल खाओ छ। ते पुद्रला थी विराधना हुवे तिणसू उत्कृष्ट पांच क्रिया कही इम वैक्रिय लब्धिफोड्यां पांच क्रिया कही। हिवे तेज़ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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