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________________ २२० सद्धममण्डनम् । मृत्युसे होने वाले पापसे बचनेके लिये पीछे लौटे थे केवल अपनी आत्मा को पाप से बचानेके लिये ही नहीं अतएव उक्त मूलगाथामें "सानुक्रोसोजिए हिउ" यह पाठ आया है। यह पाठ तभी सार्थक हो सकता है जब उन जीवोंकी रक्षा करनेके लिये भगवान का लौट जाना माना जाय । जो लोग जीवों पर दया करके उनकी रक्षाके लिये भगवान्का लौट जाना नहीं मानते उनके मतमें उक्त पाठ निरर्थक ठहरता है क्योंकि पापके भयसे लौटना तो अपनी अनुकम्पा है उन जीवोंकी नहीं इसलिये जीतमलजीके हिसाब से उक्त गाथाका "सानुक्कोसोजिए हिउ" यह पाठ किसी प्रकार भी सार्थक नहीं हो सकता अतः उन जीवोंकी रक्षाके लिए भगवान नहीं लौटे थे यह कहना मिथ्या है। ऊपर लिखी हुई वीसवीं गाथामें लिखा है कि भगवान नेमिनाथजीने अपने कानोंके कुण्डल, कटिसूत्र तथा शेष सभी आभूषण उतार कर सारथीको इनाम दे दिए। यहां इनाम देने का कारण बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है कि "विदित भगवदाकूतेन नोट-कोई कोई एकेन्द्रिय और पञ्चेन्द्रिय जीवकी हिंसाको एक समान मान कर उनमें अल्प और महान रूप भेदका खण्डन करते हैं और एकेन्द्रिय तथा पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी हिंसामें अल्प और महानका भेद बतलाने वालोंको हिंसाका अनुमोदक कहते हैं इसी तरह एकेन्द्रियकी दयासे पञ्चेन्द्रियकी दयाको प्रधान कहने वालोंको हिंसाका समर्थक बतलाते हैं परन्तु यह उनका अज्ञान है क्योंकि इसी उत्तराध्ययन सूत्र के २३ वें अध्ययनमें भगवान् नेमिनाथजीका विवाहके विमित्त जल स्नान करना लिखा है, जलके जीव, विवाह मण्डपमें बांधे हुए पशुओंसे असंख्य गुण अधिक थे फिर भगवान् नेमिनाथजी उन जलके जीवोंकी हिंसा देख कर स्नान करनेसे क्यों नहीं निवृत्त हो गये । इससे स्पष्ट सिद्ध होता हैं कि भगवान् नेमिनाथजीने जलके जीवोंकी अपेक्षा मण्डपमें बांधे हुए पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी हिंसाको बहुत ज्यादा पाप और एकेन्द्रियकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रियकी दया को बहुत ज्यादा उत्तम समझा था इश लिये वह जलस्नानसे तो निवृत्त न हुए परन्तु मण्डपमें बांधे हुए पशुओंके रक्षार्थ निवृत्त हो गये थे। यद्यपि भगवान् नेमिनाथजी तीन ज्ञानके धनी होनेके कारण अपना विवाह न होना जानते थे और उनके पूर्व तीर्थंकरोंने भी २२ वें तीर्थकरको बाल ब्रह्मचारी रह कर दीक्षा ग्रहण करना कहा था तथापि एकेन्द्रिय जीवोंकी अपेक्षा पञ्चेन्द्रिय जीवोंकी दयाका महत्व बतानेके लिये भगवानने जल स्नानमें कोई आपत्ति नहीं की परन्तु विवाह मण्डपमें बांधे हुए पवेन्द्रिय जीवोंको देख कर वहांसे हट गये थे। संशोधक। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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