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मिथ्यात्विक्रियाधिकारः।
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श्रावकका मनुष्य भव छोड़ कर फिर मनुष्य भवमें आनेका ज्वलन्त उदाहरण है इसलिये उत्तराध्यन सूत्रके अध्ययन ७ की बीसवीं गाथामें कहे हुए सुव्रत शब्दका सामान्य व्रतधारी अर्थ है मिथ्यादृष्टि नहीं। .
(बोल २२ वा समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १६ के ऊपर उत्तराध्ययन सूत्रके अध्ययन ९ की चौवालीसवीं गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि-.
“अथ इहां तो मिथ्यात्वीनो मास क्षमग तप सम्यग्दृष्टिना चारित्र धर्मने सोलवीं कला न आवे एवं कयो । तेचारित्र धर्मतो संवर छै तेहने सोलबों कलाइन आवे कह्यो ते सोलवी कलाईज नाम लेइ बतायो पिग हजारमेंइ भाग न आवे तेहने संवर धर्म छै इज नहीं। पिग निर्जरा धर्म आश्रय कयो नथी निर्जरा धर्म निर्मल छै तेकरणी तपस्या शुद्ध छै आज्ञामांहि छै"
(भ्र० पृ० १६-१७) इसका क्या समाधान(प्ररूपक)
उत्तराध्ययन सूत्रकी वह गाथा लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह गाथा यह है
"मासे मासेउ जोवालो कुसग्गेण तु भुञ्जइ नसो सुक्खाय धम्मस्स कल अग्घइ सोलसिं"
(उत्तरा० अ० ९ गाथा ४४) जो पुरुष, बाल यानी मिथ्यादृष्टि अज्ञानी है वह हर एक मासमें कुशके अग्रभागमें जितमा अन्न ठहरता है उतना ही खाका चाहे कुशके अग्रभागको ही खाकर रह जावे तो भी वह जिनोक धर्मके आचरण करनेवाले पुरुषके सोलहवें अंशके बराबर भी नहीं होता। यह इस गाथाका अर्थ है।
__यहां मास-मास क्षमग रूप घोर तपस्या करने वाले मिथ्यादृष्टि अज्ञानीको जिनोक्त धर्मका आचरण करने वाले पुरुषके सोलहवें अंशके बराबर भी न होना कहा है। इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि मिथ्यादृष्टिकी कठिनसे कठिन भी तपस्या, वीतरागकी आज्ञामें नहीं है। यदि वह आज्ञामें होती, तो उस तपस्याके आचरण करनेसे गायोक्त मिथ्यादृष्टि पुरुष भी जिनोक्त धर्मका ही आचरण करनेवाला होता और जब वह जिनोक्त धर्मका आचरण करने वाला होता तो उसके लिये इस गाथामें यह कदापि नहीं कहा जाता
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