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पुण्याधिकारः।
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"अथ इहां तो वह्यो हे राजन् ! अशाश्वत जीवितव्यने विषे गाढ़ा पुण्यना हेतु शुभ अनुष्ठान शुभ करणी न करे ते मरणान्तने विषे पश्चात्ताप करे। इहां पुण्य शब्दे. पुण्य नो हेतु शुभ अनुष्ठानने को" इत्यादि।
इनके कहनेका तात्पर्य यह है कि इस गाथामें पुण्यको आदरणीय नहीं कहा है। अतः मोक्षार्थियोंको पुण्य आदरणीय नहीं है।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
पुण्यके हेतुभूत शुभ अनुष्ठान का आदरणीय होना भ्रमविध्वंसन कार स्वयं कबूल करते है और शास्त्रके अन्दर शुभ अनुष्ठान, और पुण्य फल इन दोनोंको पुण्य कहकर बतलाया है । इस लिये मोक्षार्थियोंको पुण्य आदरणीय नहीं है यह कहना भ्रमविध्वंसनकारका अपने कथनसे ही विरुद्ध है। यदि वह कहें कि हम पुण्यफलकी अपेक्षा से पुण्यको अनादरणीय कहते हैं परन्तु शुभ अनुष्ठान की अपेक्षासे पुण्यको अनादरणीय नहीं कहते तो इसका उत्तर यह है कि पुण्य फलकी अपेक्षासे भो पुण्यको अनादरणीय कहना भ्रमविध्वंसनकारका मज्ञान है क्योंकि उत्तराध्ययन सूत्रके १३ वें अध्ययनके २१ वी गाथामें मनुष्य जन्मको दुर्लभ कह कर मोक्षार्थियोंको भी पादरणीय बतलाया है । तथा उत्तराध्ययन सूत्रके २३ वें अध्ययनमें संसार सागरसे पार होने वाले प्राणियोंके लिये मनुष्य शरीरको नौकाकी तरह आदरणीय बतलाया है। वह पाठ यह है
"सरीर माहुनावत्ति जीवोउच्चइ नाविओ संसारो अन्नको उत्तो जं तरंति महेसिणो"
(उ० अ० २३ गाथा) ___ अर्थात् मनुष्य शरीर मौका है जीव उस भावको चलाने वाला माविक है और यह संसार समुद्र है। इसे महर्षि लोग पार करते हैं।
इसमें मनुष्य शरीरको नौकाका दृष्टान्त देकर संसार सागरसे पार जाने वाले पुरुषोंके लिये इसकी परम आवश्यकता बतलाई है। मनुष्य शरीर पुण्य का ही फल है । अतः स्पष्ट सिद्ध होता है कि साधन दशामें पुण्य फल भी मोक्षार्थियोंको बादरणीय है। भगवान महावीर स्वामीने मनुष्य जन्म मिलना दुर्लभ बतलाते हुए यह कहा है कि... "दुल्लहे खलु माणुसे भवे चिर काले णवि सव्वपाणिणं"
(उ०म०१०)
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