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सद्धर्ममण्डनम् ।
___ अटकाव हुवे जो पहने म्हें खोलां किण न्याय (५) तथा कुमति विहंडन नामक ग्रन्थमें जीतमलजीने लिखा है
"सम्वत् १८५९ सोजदमें वर्जू जी नाथाजी आदि सात आर्य्याने भीषगजी स्वामी साथे आय छत्री आगलकानी उपासरारी अज्ञालिधी गृहस्थ और वासथी कूची ल्यायो आर्या मांहे उतारी जितरे स्वामीजी कने ऊभा। आO उपसरामें गया पछे स्वामीजी ठीकाने माया ए वात नाथाजीरे मुंहडा थी सुणी तिम लिखो। सम्बत १८९४ चैत्र शुदी १५ वार सोम खेरवामें नाथाजी कने बैठा पूछने लिखियो छै"
___ यहां पर जीतमलजीने साफ २ लिखा है कि भीषणजीने गृहस्थसे कूजी लाकर द्वारके फाटकका ताला खोला था और सतीओंको अन्दर प्रवेश कराया था। तथा पूर्व लिखित दोहोंमें खिडकीका कपाट खोल कर भीषणजीका बाहर जाना और हेमजी के पूछने पर उसे शास्त्रानुकूल बताना साफ साफ लिखा है। यदि द्वारका कपाट खोलनेमें दोष था तो भीषगजीने छत्रीके फाटकका ताला खोल कर सतियोंको अन्दर कैसे प्रवेश कराया था ? तथा खिडकीका कपाट खोल कर वह रातमें बाहर कैसे गये थे ? अतः द्वारके कपाटको खोलनेमें साधुताका विनाश मानना इनका अज्ञान और इनके स्वयं आचरणसे भी भी विरुद्ध है।
(बोल १ समाप्त) (प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५६ पर उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ४ के ३५ वी गाथा लिख कर उसकी समाले चनामें लिखते हैं
"अथ अठे इम कह्यो किमाण सहित स्थानक मणकरीने पिण वांछणो नहीं तो जडवो किहांथकी' (भ्र० पृ० ४५६)
इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
कपाट वाले मकानकी जब मनसे इच्छा भी बुरी है तब फिर उसमें उतरना तो और ज्यादा वुरा होगा फिर तेरह पन्थी साधु कपाट वाले मकानमें क्यों उतरते हैं ? इस काऱ्यांसे उनकी साधुता से रह सकती है ? जिसकी मनसे इच्छा रखना भी बुरा है उस कार्याको शरीरसे करना तो और अधिक हानिकर है परन्तु तेरहपन्थी स धु कपाट वाले मकानमें उतरते हैं, उसका परहेज नहीं रखते और कहते हैं कि कपाट सहित मकान की साधुको मनसे भी इच्छा नहीं रखनी चाहिये । इस प्रकार जो अपने कथनसे ही विपरीत आचरण करता है उसका सिद्धान्त कहांतक सत्य है यह हर एक बुद्धिमान जीव
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