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इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक)
ठाणाङ्ग सूत्रका वह पाठ लिख कर इसका समाधान किया जाता है। वह पाठ यह है :
"चविहे पणिहाणे मन पणिहाणे वय पणिहाणे काय पणिहाणे उवगरण पणिहाणे । एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं । चविहे सुप्पणिहाणे पण्णत्ते तंजहा मन सुप्पडिहाणे जाव उपकरण सुपणिहाणे एवं संजय मणुस्साणवि । चउब्विहे दुष्पणिहागे पं० तं० मन दुष्पsिहाणे जाव उवगरण । एवं पञ्चेन्द्रियाणं जाव वैमाणियाणं" ( ठागाङ्ग ठाणा ४ उद्देशा १ )
सद्धमंमण्डनम् ।
( टीका ) “प्रणिधानं प्रयोगः तत्र मनसः प्रणिधानम् आतंरौद्र धर्मादि रूपतया प्रयोगो मन: प्रणिधानम् । एवं वाक्काययोरपि उपकरणस्य लौकिक लोकोत्तररूपस्य वस्त्र पात्रादेः संयमा संयोपकाराय प्रणिधानं प्रयोगः उपकरण प्रणिधानम् । एवमिति तथा सामान्यत स्तथा नैरयिकाणामिति । तथा चतुर्विंशति दण्डक पठितानां मध्ये ये पन्चेन्द्रियास्तेषा वैमानिकान्तानामेवेति । एकेन्द्रियादीनां मनः प्रभृतीनाम संभवेन प्रणिधाना संभ
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वात् । प्रणिधान विशेषः सुप्रणिधानं दुष्प्रणिधानव्चेति तत्सूत्राणि । शोभनं संयमार्थत्वा त्प्रणिधानं मनः प्रभृतीनां प्रयोजनं सुप्रणिधानमिति । इन्च सुप्रणिधानं चतुर्विंशति दण्डक निरूपणायां मनुष्याणां तत्रापि संयतानामेत्र भवति चारित्रपरिणतिरूपत्वात्सु प्रणिधानस्येत्याह "एवं संजए" इत्यादि, दुष्प्रणिधान सूत्र सामान्य सूत्रवत् नवरं दुष्प्रणिधानम् असंयमार्थं मनः प्रभृतीनां प्रयोग इति”
अर्थ:
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प्रयोग करनेका नाम “प्रणिधान " है। आर्त रौद्र और धर्म आदि ध्यान करना " मनः प्रणिधान " कहलाता है । इसी तरह वचन और शरीरके प्रयोगको क्रमशः वचन प्रणिधान और काय प्रणिधान कहते हैं । उपकरण नाम वस्त्र पात्र आदिका है वह दो तरहका होता है लौकिक और लोकोत्तर, उनका संयम और असंयम के लिये प्रयोग करना उपकरण प्रणिधान कहलाता है । ये चारों प्रणिधान नारकि पञ्चेन्द्रियसे लेकर मावत् वैमानिक देव तकके प्राणियों में होते हैं । एकेन्द्र आदि जीव जो मनोविकल हैं उनमें उक्त चतुर्विध व्यापार नहीं होते । प्रणिधान विशेष को सुप्रणिधान और दुष्प्रणिधान कहते हैं। मन, वचन काय और उपकरणका प्रयोग जो संयम पालनार्थ किया जाता है वह सुप्रणिधान है। यह सुप्रणिधान, चतुर्विंशति दण्डकके जीवोंमें केवल
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