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________________ विनयाधिकारः। ३९९ से अधिक गुणवान् सम्यग्दृष्टिको वन्दना नमस्कार करना तथा उसका गुणानुवाद करना धर्म है पाप नहीं है तथापि भ्रमविध्वंसनकार अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टिके गुणानुवाइको तो धर्म और वन्दना नमस्कार को पाप बतलाते हैं यह इनका व्यामोह है । जब कि अपने से अधिक सम्यग्दृष्टिके गुणग्राम करनेमें धर्म होता है तब फिर वंदना नमस्कार करने से पाप कैसे हो सकता है ? यह विचारना चाहिये । अतः अपनेसे श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुष की वंदना नमस्कार को पाप कायम करना अज्ञान का परिणाम समझना चाहिये । [बोल ५ वां समाप्त ] (प्रेरक) जन्मते तीर्थ करको इन्द्रने, तथा जन्मते तीर्थङ्कर और उनकी माता को विकु मारियोंने वंदन नमस्कार और गुगप्राम किये थे इस दाखलासे यद्यपि अपने से श्रेष्ठ सम्यग्दृष्टि पुरुषका वंदन नमस्कार करना तथा उनका गुणग्राम करना धर्म सिद्ध होता है तथापि भ्रमविध्वंसनकार इस बात को मिथ्या सिद्ध करनेके लिये भ्रम० पृ० २८४ के ऊपर जम्बूद्वीप पन्नति का मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते ___“अथ इहां कहो तीर्थकर जन्म्या ते द्रव्य तीर्थङ्करने इन्द्र नमोऽत्थुणं गुणे नमस्कार करे ते पिण इन्द्रनी रीति हुन्ती ते सांचवे पिण धर्म जाणे नहीं । तीण ज्ञान सहित इन्द्र एकावतारीने पिग पर पुठे जनम्या छतां द्रव्य तीर्थङ्कर नो विनय करे नमोऽत्थुणं गुणे ते लौकिक संसारनी रोति सांचवे पिण मोक्ष हेते नहीं।" (भ्र० पृ० २८४) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) जन्मते तीर्थङ्करको वंदना नमस्कार, इन्द्र धर्म जान कर नहीं करते इसमें कोई प्रमाणं नहीं है। यदि कहो कि मूलपाठमें "जीय मेयं” ऐसा पाठ आया है और इस पाठका अर्थ यह है कि इंद्र जन्मते समय तीर्थकरको वंदना नमस्कार करना अपना पुराना आचार बतलाता है अर्थात् पुराने इंद्रोंने पुराने तीर्थंकरोंको पंदन नमस्कार किया है इसलिये वर्तमान इंद्र भी वर्तमान तीर्थकरको वंदना नमस्कार करके पुरातन रीतिका पालन करता है पर इस कार्यको वह धर्म समझ कर नहीं करता तो यह मिथ्या है क्योंकि केवल झान उत्पन्न होने पर जहां देवताओंने तीर्थंकर को वंदना नमस्कार किया है वहां भी "जीय मेयं देवा" यही पाठ पाया है। 'अर्थात् हे देवताओं ! तीर्थंकरोंको वंदन नमस्कार करना तुम्हारा पुराना आचार है।' फिर तो भ्रमविध्वंसनकारके हिसाबसे केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर भी तीर्थकरको वंदना नमस्कार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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