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सद्धर्ममण्डनम् ।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
आवश्यक सूत्रका नाम लेकर साधुओंमें कृष्गादिक तीन अप्रशस्त भाव लेश्याका स्थापन करना और साधुमें द्ररुध्यान बतलाना अयुक्त है । रुद्रध्यान वालेकी शास्त्रमे नरक गति कहो है और हिंसा आदि अति क्रूर कर्मोंके आचरण करनेके लिये दृढ़ निश्चय करनेका नाम रुद्रध्यान है। ठाणाङ्ग सूत्रकी टीकामें लिखा है कि
___ध्यानं दृढ़ोऽध्यवसायः । हिंसायति क्रौर्यानुगतं रुद्रम्” ।
अर्थात् हिंसा आदि अति क्रू र कर्मोंके आचरण करनेका जो दृढ़ निश्चय है वह रुद्रध्यान है। यह चतुर्विध होता है (१) हिंसानुवन्धी (२) मृषानुवन्धी (३) स्तेनानुवन्धी (४) संरक्षणानुवन्धी।
ये चारों प्रकारके ध्यान अति क्रूर कर्मियों के होते हैं साधुके नहीं होते क्योंकि साधु अति क्रूर कर्मी नहीं है।
आवश्यक सूत्रमें पडिक्कमामि चाहिं झाणेहि" यह पाठ आया है इससे साधुओं में रुद्रध्यान नहीं सिद्ध हो सकता क्योंकि आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ध्यानमें अविश्वास होनेसे जो साधुको अतिचार आता है उसकी निवृत्तिके लिये उक्त पाठका उच्चारण करके साधु प्रतिक्रमण करता है इन चारों ध्यानोंके साधुमें होनेसे नहीं अतएव इस पाठका अभिप्राय बतलाते हुए टीकाकारने लिखा है
"प्रतिक्रमामि चतुर्भिानैः करण भूतै रश्रद्धयादिना प्रकारेण योऽतिचारः कृतः"
अर्थात् शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार किया है उससे मैं निवृत्त होता हूं यह साधु प्रतिज्ञा करता है।
यहां टीकाकारने शास्त्रोक्त चार ध्यानोंमें अविश्वास रखनेसे होने वाले अतिचारकी निवृत्ति के लिये प्रतिक्रमण करना कहा है इन ध्यानोंके साधुओंमें होनेसे नहीं। अतः आवश्यक सूत्रका नाम लेकर साधुमें रुद्रध्यानका स्थापन करना मिथ्या है । जिस प्रकार साधुमें रुद्रध्यान नहीं होता उसी तरह उसमें कृष्णादि अप्रशस्त भाव लेश्या भी नहीं होती तथापि यदि कोई दुराग्रही प्रतिक्रमण सूत्रकी टीकाको न मान कर साधुमें रौद्र ध्यानका स्थापन करे तो उसे कहना चाहिये कि शास्त्र में प्रमादी साधुको ही प्रतिक्रमण करनेकी आवश्यकता बतलाई है और प्रतिक्रमण सूत्रमें रुद्र ध्यानकी तरह शुक्ल ध्यानका भी प्रतिक्रमण कहा है फिर तुम प्रमादी साधुमें शुक्ल ध्यानका सद्भाव क्यों नहीं मानते ? अतः जैसे प्रमादी साधुमें शुक्ल ध्यान न होने पर भी उसमें अविश्वास होनेसे जो अतिचार आता है उसकी निवृत्ति के लिये प्रमादी साधु प्रतिक्रमण करता है उसी
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