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________________ मिथ्यात्वक्रियाधिकारः । ५३ इस पाठ में, जिसको जीव अजीव त्रस और स्थावरका ज्ञान नहीं है उसको का - fast आदि क्रियाओंसे युक्त संवर रहित प्राणियोंको एकान्त दण्ड देनेवाला और एकांत बाल कह कर उसके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान और उसे मिथ्यावादी कहा है । इससे मिथ्यादृष्टि अज्ञानी पुरुषकी प्रत्याख्यानादि क्रिया वीतरागकी आज्ञासे बाहर और मोक्षका अमार्ग सिद्ध होती है । तथापि भ्रमविध्वंसनकार भोले जीवोंको भ्रममें डालनेके लिये यह कहते हैं कि “मिथ्यादृष्टि भी त्रसको त्रस जानकर उसके हननका त्याग करता है परन्तु उसमें संवर नहीं होता इसलिये उसके प्रत्याख्यानको इस पाठमें दुष्प्रत्याख्यान कहा है” यह इनका कथन सर्वथा शास्त्रविरुद्ध है। जो पुरुष त्रस जीवको त्रस जान कर उसके हननका त्याग करता है वह एकान्त बाल एकान्त प्राणियोंको दण्ड देनेवाला और एकान्त संवर रहित नहीं है किन्तु देशसे (सके विषयमें ) प्राणियोंको दण्ड न देनेवाला देशसे पण्डित और देशसे संवरधारी है इसलिये वह मिथ्यादृष्टि नहीं किन्तु सम्यग्दृष्टि है उसके प्रत्याख्यान को यहां दुष्प्रत्याख्यान नहीं कहा है क्योंकि उसका प्रत्याख्यान, अज्ञान पूर्वक नहीं है। जिसका प्रत्याख्यान अज्ञानपूर्वक होता है उसीके प्रत्याख्यानको यहां दुष्प्रत्याख्यान कहा है इसलिये जो त्रसको त्रस स्थावरको स्थावर नहीं जानता और झूठ ही कहता है कि मैंने जीवोंके हननका त्याग कर दिया है उस मिथ्यादृष्टि अज्ञानीके प्रत्याख्यानको दुष्प्रत्याख्यान कह कर उसे यहां आज्ञा बाहर होनेकी सूचना दी है। अतः सको त्रस जानकर उसके हननका त्याग करनेवाले पुरुषको मिथ्या ही मिथ्यादृष्टि कायम करके मिथ्यादृष्टि प्रत्याख्यानको सुप्रत्याख्यान कहना एकांत मिथ्या है । भ्रमविध्वंसनकार यहां यह भी कहते हैं कि “मिध्यादृष्टिमें जो निर्जरा होती है वह निमल है उसके हिसाब से मिथ्यादृष्टिका प्रत्याख्यान सुप्रत्याख्यान है" परन्तु यह इन की अपनी कल्पना है शास्त्रमें ऐसा कहीं नहीं कहा है कि मिथ्यादृष्टिका प्रत्याख्यान उस की निर्जरा के हिसाब से सुप्रत्याख्यान होता है । इसलिये इस पाठ में मिथ्यादृष्टिके प्रत्याख्यानको प्रत्यक्ष दुष्प्रत्याख्यान कहे जाने पर भी उसे अपने मतके आग्रहमें आकर सुप्रत्याख्यान कहना प्रत्यक्ष उत्सूत्र भाषण और अप्रामाणिक है । ( बोल २५ वां ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ २१ के ऊपर सुयगंडाग सूत्र श्रुत० १ अ०.८ गाथा seat लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं कि "अथ अठेतो इमि कह्यो — जे तत्वना अजाण मिथ्यात्वीनो जेतलो अशुद्ध परा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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