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दानाधिकारः।
१९१ सम्मं कारणं फासे माणे पाले माणे पुरतो जुग मायाए पेह माणे दट्टणं तसे पाणे उडु, पायं रीएजा साह पायं रोएज्जा तिरिच्छेवा पायं कटुरोएज्जा सतिपरक्कमे संजयामेव पक्कमेज्जा णो उज्जुयं गच्छेज्जा"
( दशाश्रुत स्कन्ध सूत्र अ० ६) अर्थ:
अब दूसरी एग्यारहवीं उपासक प्रतिमा कही जाती है इसमें प्रवेश किये हुए श्रावकको इस की पूर्व प्रतिमाओंके सभी धर्मों में रुचि रखनी चाहिये और इसके निमित्त बनाये हुए अन्न (उद्दिष्ट) को न लेना चाहिये । केशोंका लुञ्चन या क्षुर मुण्डन करा कर साधुओंके आचार पालनार्थ पात्र रजोहरण और मुख वस्त्रिका आदि सभी धर्मोपकरणोंको रखना चाहिये। धर्मोपकरणोंको रख कर साधुके समान वेष बना कर श्रमण निग्रन्थोंके सभी धर्मों का शरीरसे स्पर्श और पालन करना चाहिये । यदि मार्गमें बस प्राणी दृष्टिगोचर हों तो उनकी रक्षाके लिये अपने पैरके पूर्व भागको ऊंचा करके अग्रतलकी सहायतासे गमन करना चाहिये अथवा जहां ब्रस प्राणी न हों वहां पैर रख कर जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि मार्गके प्राणियों की रक्षाके लिये कभी पैरको संकुचित करके कभी एडीके ऊपर अपने सम्पूर्ण शरीरका भार देकर चलना चाहिये परन्तु जैसे तैसे चलना ठीक नहीं है । यह बात भी जहां दूसरा मार्ग न हो वहींके लिये समझनी चाहिये परन्तु जहां दूसरा मार्ग मौजूद है वहां प्राणिसंकुल मार्गसे जाना उचित नहीं है । यह उक्त मूलपाठका अर्थ है।
इस पाठमें ११ वी प्रतिमाधारी श्रावकको दशविध यति धर्मों का अनुष्ठान करने और उसके लिये साधु भोंके समान भाण्डोपकरण रखनेकी स्पष्ट आज्ञा दी गयी है अतः ११ वी प्रतिमाधारी श्रावक दशविध यति धर्मों का पूर्णरूपसे पालन करने वाला बड़ा ही पवित्रात्मा और सुपात्र है। इसे कुपात्र कह कर पारणेके दिन इसे सूझता आहार देनेसे एकान्त पाप बतलाना अज्ञानियोंका कार्य समझना चाहिये। जो दशविध यति धर्मोका पूर्णरूपसे पालन करता है वह अपात्र तथा कुपात्र नहीं हो सकता यह बुद्धिमानोंको स्वयं सोच लेना चाहिये।
___कई कहते हैं कि इन एग्यारह प्रतिमाओंमें जितना जितना त्याग है वह सब तीर्थकर और गणधरोंकी आज्ञामें है परन्तु उनमें जो आरम्भादि अंश शेष हैं वे तीर्थकर
और गणधरकी आज्ञामें नहीं हैं। सातवीं प्रतिमा सचित्तका त्याग है परन्तु आरम्भका त्याग नहीं है अतः जैसे इसमें सचित्तका त्याग भगवान्की आज्ञामें है और आरम्भ करने का आगार भगवान्की आज्ञामें नहीं है उसी तरह एग्यारहवीं प्रतिमामें तपस्या करना,
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