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________________ लंध्यधिकारः । २९९ (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ १८९ पर भगवती सूत्रकी टीका लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं ___ "अथ टीकामें पिण इम कह्यो ते गोशालानो रक्षण भगवन्ते कियो ते सराग पणे करी अने सुनक्षत्र सर्वानुभूतिनो रक्षण न करस्ये ते वीतराग पणे करी एतो गोशालाने बंचायो ते सराग पणो कह्यो पिण धर्म न कह्यो ए सराग पणाना अशुद्ध कार्यमें धर्म किम कहिए" (भ्र० पृ० १८९।१९०) इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक) सरागपनेके कार्यमें धर्म नही होता यह भ्रमविध्वंसनकारका कथन अज्ञान से परिपूर्ण है। अपने धर्म, धर्माचार्य और दया आदि उत्तम गुणोंमें राग रखना भी सरागताका ही कार्य है परन्तु इससे पाप होना शास्त्रमें नहीं कहा है बल्कि शास्त्रमें इसकी प्रशंसा की है। शास्त्रमें ये वाक्य मिलते हैं _ "धम्मायरियापेमाणुरायरत्ता” “अद्विमिंजा पेमाणुरायरत्ता" " तीव्वधम्मानुरागरत्ता” इनके क्रमशः अर्थ ये हैं: अपने धर्माचार्य में प्रेमानुरागसे रक्त । हड्डी और मज्जाओं में प्रेम और अनुराग से रंगे हुए । धर्मके तीव अनुरागसे रंगे हुए। __ ये बाते शास्त्रमें प्रशंसाके लिये कही गई हैं परन्तु धर्माचार्य प्रेमानुराग रखना, अपने धर्ममें तीव्र अनुराग रखना और हड्डी तथा मज्जाओंमें आचार्यके प्रति प्रेमानुरागसे रक्त होना सरागताके ही कार्य हैं इसलिये भ्रमविध्वंसनकार के हिसावसे इन कार्यों में भी पाप ही होना चाहिये क्योंकि ये सरागताके ही कार्य हैं। शास्त्रकार ने तो इन कार्योको पाप नहीं किन्तु धर्म जान कर इनको प्रशंसा की है अत: सरागताके सभी कार्यों में पाप बताना अज्ञानका परिणाम है। वास्तवमें हिंसा, झूठ, चोरी और व्यभिचार आदिमें राग रखना बुरा है पाप है परन्तु धम, धर्माचार्य, अहिंसा, सत्य, तप, संयम और जीव दया आदिमें राग रखना धर्म है पाप नहीं है। भिक्खयश रसायन नामक ग्रन्थमें जीतमलजीने लिखा है कि-"रूडे चित्त भेल्या रहा, वरषट संत वदीत हो। जाव जीव लगि जाणियो, परम माहो माही प्रीति हो।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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