SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 255
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनुकम्पाधिकारः। भ्रमविध्वंसनकारने अपने मतकी पुष्टिमें कुछ दृष्टान्त भी दे डाले हैं, जैसे “एक मनुष्य झूठ बोलता है और दूसरा झूठ नहीं बोलता और तीसरा सत्य बोलता है। इनमें जो झूठ बोलता है वह एकान्त पापी है और जो झूठ नहीं बोलता है वह एकांत धार्मिक है। तथा जो सत्य बोलता है उसके दो भेद हैं। एक सावध सत्य बोलता है और दूसरा निरवद्य सत्य बोलता है। इनमें जो सावध सत्य बोलता है वह एकान्त पाप करता है और जो निरवद्य सत्य बोलता है वह धर्म करता है। यह तो दृष्टान्त हुआ इसका दान्ति जीतमलजी यह देते हैं - "एक मनुष्य हिंसा करता है और दूसरा हिंसा नहीं करता और तीसरा रक्षा करता है। इनमें जो हिंसा करता है वह एकान्त पापी है और जो हिंसा नहीं करता है वह एकान्त धार्मिक है। तथा जो जीवरक्षा करता है उसके दो भेद हैं। एक हिंसकको हिंसाके पापसे बचानेके लिये न मारनेका उपदेश करता है और दूसरा हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये न मारनेका उपदेश देता है । इनमें जो हिंसकको हिंसा का पाप छुड़ानेके लिये न मारनेका उपदेश देता है वह तो धार्मिक है और जो हिंसकके हाथसे मारे जानेवाले प्राणीकी प्राणरक्षा करनेके लिये न मारनेका उपदेश देता है वह एकान्त पाप करता है क्योंकि मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना जैन धर्मका सिद्धान्त नहीं है" यह जीतमलजी का मत है। इस मतकी पुष्टिके लिये पूक्ति दृष्टांतके सिवाय यह और भी दृष्टान्त देते हैं जैसे-चोरी करनेवालेको साधु धनीके मालकी रक्षाके लिये चोरी न करनेका उपदेश नहीं देते किन्तु चोरको चोरीके पापसे बचानेके लिए उपदेश देते हैं उसी तरह साधु, कसाईके हाथसे मारे जानेवाले बकरे की प्राणरक्षाके लिये न मारनेका उपदेश नहीं देते किन्तु कसाईको हिंसाके पापसे बचाने के लिये उपदेश देते हैं इत्यादि भ्रमोत्पादक वातें लिख कर जीतमलजीने जैन धर्मके प्राणभूत रक्षा धर्मका समूल नाश करनेकी चेष्टा की है परन्तु इनकी ये सब बातें निराधार और शास्त्रसे विरुद्ध हैं। कसाईके हाथसे मारे जाने वाले प्राणियों की प्राणरक्षाके लिये उपदेश देना सावध सत्यकी तरह एकांत पाप नहीं है किन्तु यह धर्म कार्य है। मरते प्राणीकी प्राणरक्षा करना जैन धर्मका खास उद्देश्य है सच पूछिये तो प्राणियोंकी प्राणरक्षा के लिये ही जैनागमका निर्माण हुआ है। प्रश्न व्याकरण सूत्रके प्रथम संवर द्वारमें यह पाठ आया है "सव्व जग जीव रक्खण दयठ्याए पावयणं भगवया सुकहियं” अर्थात् "संसारके सभी जीवोंकी रक्षारूप दयाके लिये भगवान् तीर्थङ्करसे प्रवचन (जैनागम ) कहा गया है" यदि हिंसकके हाथसे मारे जाने वाले जीवोंकी रक्षा करनेके लिये उपदेश देना, एकान्त पाप होता तो इस पाठमें संसारके सभी जीवोंकी रक्षा रूप दयाके लिये जैनागमका कथन होना क्यों कहा जाता ? अत: जीवरक्षाके उद्देश्यसे उपदेश देनेको एकान्त पाप और इसे अन्य तीर्थी का धर्म बताना शास्त्र विरुद्ध समझना चाहिये। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy