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सद्धर्ममण्डनम् ।
अत: दशवैकालिक सूत्र के दृष्टांत से नरक, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेद को न मानना अज्ञान है ।
( बोल ४ )
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(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३४२ पर अनुयोगद्वार सूत्रका मूल पाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते है:
"अथ इहां विशेष अविशेष ए वे नाम कह्या तिणमें व्यविशेषधी तो मनुष्य विशेथी संमूच्छिम गर्भज । अने व्यविशेषथी तो संमूच्छिम मनुष्य अने विशेषथी
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तो अपर्याप्त कह्यो । इहां संमूच्छिम मनुष्यने पर्याप्तो अपर्याप्तो ते केतलीक पर्याय बांधी ते पर्याय आश्री पर्याप्तो कह्यो । अने सम्पूर्णत: वांधी ते न्याय अपको। संमूच्छिम मनुष्यने पर्याप्तो कह्यो पिण पर्य्याप्ता में जीवरा सात भेद पावे ते मांहिलो भेद न थी । जे देवताने असंज्ञी कह्या मांटे असन्नीरो जीवरो भेद कहे तो तिणरे लेखे संमूच्छिम मनुष्यने पिण पर्याप्तो ह्या मांटे पर्याप्तारो भेद कहिणो अने संमूच्छिम मनुष्य में पर्य्याप्तारो भेद न थी कहे तो देवतामें पिण असन्नीरो भेद न कहिणो" ( ० पृ० ३४२ ) इसका क्या उत्तर ?
( प्ररूपक )
संमूच्छिम मनुष्यका दृष्टांत देकर प्रथम नारकि, भुवनपति और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञके भेदका निषेध करना अयुक्त है क्योंकि अन्य सूत्रोंमें संमूच्छिम जीवों में पर्याप्तपनेका स्पष्ट निषेध किया है इसलिये संमूच्छिम मनुष्योंमें पर्याप्तका भेद नहीं माना जा सकता परन्तु प्रथम नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीके अपcaca भेदका कहीं भी निषेध नहीं किया है इसलिये प्रथम नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर देवों में असंज्ञी के अपर्याप्त नामक भेद का निषेध करना अप्रामाणिक है ।
यदि कोई कहे कि संमूच्छिम मनुष्योंमें पर्याप्तपनेका जब कि अन्य सूत्रों में निषेध किया है तब फिर अनुयोग द्वार सूत्रमें उसे पर्याप्त कैसे कहा है ? तो इसका समाधान यह है कि — जैसे अनुयोग द्वार सूत्रमें उदय आदि भावोंके २६ विकल्प, विकल्प मात्र दिखाने के लिये किये हैं परन्तु सभी विकल्पोंके उदाहरण नहीं मिलते उसी तरह संमूच्छिम मनुष्योंके दो भेद भी संभावना मात्रसे किये हैं परन्तु संमूच्छिम जीवों में पर्याप्त नामक भेदके होनेसे नहीं क्योंकि अन्य सूत्रोंमें संमूच्छिमजीवों में पर्याप्तपने
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