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अनुकम्पाधिकारः।
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यहां त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेसे साधुको प्रायश्चित्त कहा है उनपर अनुकम्पा करनेसे नहीं क्योंकि अनुकम्पा करनेकी तीर्थङ्करकी आज्ञा है। जैसे साधु को आहार पानी लेनेसे प्रायश्चित्त नहीं होता क्योंकि आहार पानी लेनेकी भगवानकी आज्ञा है परन्तु यदि विद्या वृत्तिसे, या मंत्र वृत्तिसे साधु आहार पानी लेवे तो उसका प्रायश्चित्त साधुको होता है । वह प्रायश्चित्त आहार पानी लेनेका नहीं किन्तु विद्या वृत्ति
और मंत्र वृत्ति करने का है उसी तरह निशीथके इस पाठमें जो त्रस प्राणीको अनुकम्पाके निमित्त वांधने छोड़नेसे प्रायश्चित्त कहा है वह त्रस प्राणीपर अनुकम्पा करनेका प्रायश्चित्त नहीं किन्तु उनको बांधने और छोड़नेका प्रायश्चित्त है। त्रस प्राणीपर कनुकम्पा करना, उनमें शान्ति स्थापित करना, तथा किसी जीवकी प्राणरक्षा करना पाप नहीं है फिर अनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त कैसे हो सकता है ?
इस पाठके भाष्य और चूर्णीमें स्पष्ट लिखा हुआ है कि "त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेसे अनर्थकी सम्भावना रहती है इसलिये इस पाठमें त्रस प्राणीको बांधने और छोड़नेमें प्रायश्चित कहा है कनुकम्पा करनेसे प्रायश्चित्त नहीं कहा" वह भाष्य और चूर्णी लिखी है। __"अच्चावेटन मरणं तराय फडंत आत्त पर हिंसा सिंग खुर पेल्लणंवा उड्डाहो भदपंता वा" (भाष्य)
"अईव आवेटियौं परिताविज्जइ मरइवा अन्तरायंचभवइ । वद्धचतड फफडतं अप्पाणं परंवाहिंसइ एसा संजम विहरणा, तंवा वझंतं सिंगेण खुरेणवा काएगवा साहुं पेलेज्जा एवंच साहुस्स आय विराहणा तंच टुं जपरेराह करेजा अहो दुट्ठि धम्मा पर तत्ति वाहिणो एवं पवयणोवघाओ भद्दयंत दोषों का भवे । महो पाइ अहो इमे साहवो अम्हे परोवक्खाणघरे वावारं करेंति सी "पुणभणेज्जो दुद्दि धम्म चाडु कारिणो कीसवा अम्हं वच्छे बंधति मुयंतिवा दिक वा-राओवा निच्छुभेज्जा वाचवा करेज्ज एए वंधणे दोसा" अर्थः
रस्सी आदिसे बांधे हुए पशु अत्यन्त आंटा खाकर जाते हैं। एवं वन्धन से पीड़ित होकर तडफडाते हुए अपनी या दूसरेकी हिंसा भी कर देते हैं। इस प्रकार पशु बांधनेसे साधुके संयमकी विराधना होती है। पशु बांधते समय पशु, यदि सींग या खुरसे साधुको मार देवे तो साधुकी अपनी विराधना होती है।
यदि ये बाते न हों तो भी गृहस्थके पशुओंको बांधते और छोड़ते हुए साधुको देखकर लोग साधुको निन्दा करते हैं। वे कहते हैं कि इन साधुओंका धर्म अच्छा नहीं है
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