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सद्धर्ममण्डनम् ।
जो पुरुष सामान्य आरम्भ करने वाला है वह चाहे गृहस्थ हो तो भी उसमें कृष्णलेश्या को परिणाम नहीं कहा जा सकता फिर साधु तो गृहस्थकी अपेक्षा बहुत ही शुद्ध परिणामी होता है उसमें भाव रूप कृष्णलेश्याका सद्भाव तो सुतगं असम्भव है। ___इस गाथामें बताये हुए कृष्णलेश्याके लक्षण जब कि सामान्य साधुओं में भी नहीं पाये जाते तब फिर भगवान महावीर स्वामीके विषयमें तो कहना ही क्या है । वह तो अनुत्तर चारित्री मूलगुण और उत्तर गुणमें दोष नहीं लगाने वाले कषाय कुशील थे उनमें भाव रूप कृष्णलेश्याका सद्भाव कैसे हो सकता है ?
अत: उत्तराध्ययन सूत्रके इस गाथाका पहिला चरण लिख कर भगवान महावीर स्वामी में कृष्णलेश्या का लक्षण धटाना मूर्ख जनताको धोखा देना है।
__ इस गाथाके बाद नीललेश्याका लक्षण बतानेके लिये उत्तगध्ययन सूत्रमें यह गाथा कही है:
___ "इस्सा अमरिस अतवो अविज माया अहीरिया' ___ अर्थात ईर्ष्या यानी दूसरेके गुणको नहीं सहना, अमर्ष यानी अत्यन्त आग्रह करना, तप नहीं करना, कुशास्त्ररूप अविद्या, माया करना, और निर्लज्जता, ये नीललेल्या के लक्षण हैं।
इस गाथामें माया करना नील लेश्याका लक्षण कहा है और दशमगुण स्थान पर्य्यन्त माया होती है। भगवती सूत्र शतक १ उद्देशा २ के मूलपाठमें अप्रमादी साधुको माया प्रत्यया क्रिया कही गई है वह पाठ यह है
"तत्थणं जेते अप्पमत्त संजया तेसिणं एगा माया वत्तिया किरिया कज्जई.
अर्थात अप्रमादी साधुमें एक माया प्रत्यया क्रिया होती है।
यहां अप्रमादी साधुमें माया प्रत्यया क्रियाका होना लिखा है और माया करना नील लेश्याका लक्षण कहा है फिर अप्रमादी साधुमें जीतमलजीके मतानुयायी नीललेश्या क्यों नहीं मानते ? यदि कहो कि "उत्तराध्ययन सूत्रकी उक्त गाथामें विशिष्ट मायाका ग्रहण होता है सामान्य का नहीं इसलिये विशिष्ट माया करना नील देश्याका लक्षण है सामान्य माया करना नहीं। अप्रमादी साधुमें विशिष्ट माया नहीं होती इसलिये उसमें नीललेश्या नहीं है" तो उसी तरह विशिष्ट रूपसे आरम्भ करना कृष्गलेश्याका लक्षण है सामान्य' आरम्भ करना नहीं इसलिये संयतियोंमें भाव रूप कृष्ण लेश्या नहीं होती क्यों कि वे विशिष्ट रूपसे आरम्भ नहीं करते हैं।
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