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________________ अनुकम्पाधिकारः। क्या कारण है ? । यदि कहो कि सुरादेवके व्रत नियम और पौषध अपनी अनुकम्पाके कारण नहीं नष्ट हुए किन्तु अपराधीको मारणार्थ क्रोधित हो कर दौड़नेसे नष्ट हुए तो फिर यही बात चूर्गीप्रिय श्रावककै विषयमें भी तुमको मानना चाहिये। चूगीप्रिय गौर सुरादेवके सम्बन्धमें आये हुए पाठोंमें बिलकुल समानता है केवल भेद इतना हो है कि चुर्णीप्रियने अपनी माता पर अनुकम्पा की थी और सुरादेवने अपने ऊपर की थी। यदि माताके ऊपर अनुकम्पा करनेसे चुर्णीप्रियका व्रत भङ्ग होना मानते हो तो फिर सुगदेवका अपने पर अनुकम्पा करनेसे व्रत भङ्ग मानना पड़ेगा और जैसे चूगी प्रियकी मातृ अनुकम्पाको सावध कहते हो उसी तरह सुरादेवकी अपनी अनुकंपाकोभी सावध कहना होगा ऐसी दशामें भीषगजीने उक्त ढालमें सामायक और पौषधमें अपने पर अनुकम्पा करके अग्नि सादिके भयसे बचनेके लिये जयणाके साथ जो निकल जानेकी आज्ञा दी है वह बिलकुल मिथ्या सिद्ध होगी अत: अपनी अनुकम्पाको भीषण मतानुयायी सावद्य नहीं कह सकते अतः जैसे सुरादेवको अपनी अनुकम्पा सावद्य नहीं थी और उससे व्रत नियम तथा पौषध नष्ट नहीं हुए थे उसी तरह चूर्णीप्रिय की भी माता के ऊपर अनुकम्पा सावध नहीं थी और उससे उसके व्रत नियम भंग नहीं हुए थे इसलिये चूर्णीप्रियका उदाहरण देकर अनुकम्पाको सावध बतलाना अज्ञानियोंका कार्य है। (बोल २६ वां समाप्त) (प्रेरक) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट १५९ पर आचारांग सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं: “अथ अठे कह्यो जे पाणी नावामें आवे घणा मनुष्य डूबता देखे पिण साधुने मन वचन करी बतावणो नहीं जो असंयतिरो जीवणो वाग्छथा धर्म हुवे तो नाकामें पाणी आवतो देखि साधु क्यों न बसावे । केतला एक कहे जे लाय लाग्यां ते परस केवाड उगाडना तथा गाडा हेठे बालक आवे तो साधुने उठाय लेणो इमि कहे तेहनो उत्तर-जे लाय लाग्यां ढाढा वाहिरे काढना तो नावामें पानी आवे ते क्यूंन बतावणो" (भ्र० पृ० १५९) इसका क्या समाधान (प्ररूपक) भ्रमविध्वंसनकार दूसरे प्राणीकी रक्षा करना पाप मानते हैं परन्तु अपनी रक्षा करना पाप नहीं मानते । अपनी रक्षा करना तो वे साधुका कर्राव्य मानते हैं ऐसी दशम Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.034599
Book TitleSaddharm Mandanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Maharaj
PublisherTansukhdas Fusraj Duggad
Publication Year1932
Total Pages562
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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