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सद्धममण्डनम् ।
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५० पा मापक सूत्रका मूलपाठ लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ अठे कटो-थोडो उघाड़गो पिण किमाड़ घगो उघाड्यो हुवे तेहनां पिण "मिच्छामि दुक्कड" देवे तो पूरो जड़गो उघाड़गो किहां थकी" (भ्र० पृ० ४५७ )
इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
बिना पूजे कगट खोलने का प्रायश्चित्त स्वरूप "मिच्छामि दुक” देना आवश्यक सूत्रमें कहा है कपाट खोलनेका प्रायश्चित स्वरूप “मिच्छामि दुकडे" देना नहीं कहा है अतएव टीकाकारने लिखा है कि "इहचाप्रमार्जनादिभ्योऽतिचारः" अर्थात यह अतिचार विना प्रमाजेन किये कपाट खोलनेसे होता है। इस टीकाकारकी उक्ति से स्पष्ट सिद्ध होता है कि प्रमाजन करके कपाट खोलने पर अतिचार नहीं होता है अत: आवश्यक सूत्रका नाम लेकर कपाट खोलनेसे साधुताका विनाश बताना सूत्रार्थ नहीं जाननेका फल समझना चाहिये ।
(बोल ३) (प्रेरक)
- भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४५७ पर सुयगडांग सूत्र की गाथा लिख कर उसकी समालोचना करते हुए लिखते हैं:
“अथ अठे इम कयो और जागा न मिले तो सूना घरने विशे रह्यो साधु पिण किमाड़ जडे उघारे नहीं तो प्रामादिकमें रह्यो किमाड़ किम जडे उघाडे ए तो मोंटा दोष छै" (भ्र० पृ० ४५७) . इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक)
सुयगडांग सूत्रकी गाथाका नाम लेकर स्थविर कल्पी साधु के लिये कपाट खोलने मौर बन्द कानेका निषेध करना अज्ञान है। उस गाथामें अकेला विहार करनेवाले जिन कल्पी साधुको कपाट खोलने और बन्द करनेका निछोध किया है स्थविर कल्पीको नहीं। वह गाथा यह है:
"एगे चरे ठाण मासणे सएणे एगे समाहिए सिया। भिक्खू उवहाण वीरिए वइगुत्ते अज्झत्त संवुडे"
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