Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 548
________________ ४९८ सद्धर्ममण्डनम् । अर्थ : साधुके निमित्त जो प्रधानरूपसे कर्म किया जाता है उसे आधाकर्म कहते हैं। साधुके निमित्त वन, भोजन मकान आदि जो किये गये हैं वे सब माधाकर्म कहलाते हैं । जो साधु इनका उपभोग करता है उसे एकान्त रूपसे क्रमसे उपलिन अथवा एकान्त रूपसे कर्मसे अनुपलिप्त न कहना चाहिये । इसका कारण यह है कि जो साधु शास्त्रोक्त रीतिसे आधाकर्मका उपभोग करता है उसको कर्मवन्ध नहीं होता और जो शास्त्र विधिका उल्लंघन करके आहारके लोभसे आधाकर्मका उपयोग करता है उसको कम्वन्य होता है । अतः आधाम के उपभोग करनेसे अवश्य कर्मवन्ध होता है या बिलकुल कर्मकन्ध नहीं होता यह एकान्त रूपले नहीं कहना चाहिये । इस विषयमें जैनागमके तत्वको जाननेवाले पुरुषों को यह कहना चाहिये कि आधाकर्मके उपभोगसे कथंचित् कर्मवन्ध होता है और कथंचित् नहीं भी होता है। पूर्वाचार्योंने कहा है कि पिण्ड, शय्या, वस्त्र, पात्र और भेषज आरि, शुद्ध और कल्पनीय होकर भी कदाचित् अशुद्ध और अकल्पनीय हो जाते हैं और अल्पनीय होकर भी कदाचित् शुद्ध और कल्पनीय होते हैं। अन्य आचार्योंने भी कहा है कि कोई ऐसी अवस्था या जाती है जिसमें कार्य तो अकार्य और अकार्य ही कार्य हो जाता है । अतः हर एक दशामें आधाकर्मी आहार खाना वर्जित नहीं हो सकता। यदि सभी समयमें आधाकर्मी आहार खाना अनुचित माना जाय तो महान अनर्थका उदय हो सकता है क्योंकि क्षुधासे पीड़ित साधु, अच्छी तरहसे ई-पथका परिशोधन नहीं कर सकता है और ईर्यापथका यथावत परिशोधन नहीं होने पर प्राणियोंका उपमद होना भी सम्भव है तथा क्षुधासे पीड़ित साधु यदि मूच्छित होकर गिर पड़े तो अवश्य उसे त्रस आदि प्राणियोंका विवात हो सकता है। कदाचित् क्षुधा कष्टसे साधुका मरण हो जाय तो उसकी विरति भी कायम नहीं रह सकती। कदाचित् क्षुधा कष्टसे मरते हुए साधुको आर्तध्यान आ जावे तो उसको ति-ग्गति होती है अतः सभी दशामें आधा कर्मी आहार खानेको वर्जित करना मिथ्या है। आगममें कहा है कि साधु को सर्वत्र संयमकी रक्षा करनी चाहिये और संयमसे भी अपनी रक्षा करनी चाहिये । यह आगम भी आधाकर्मी आहारको कारणवश खाने पर क्रमवन्धका अभाव बतलाता है यद्यपि आधाकर्मी आहारको तय्यार करनेमें छ: कायके जीवोंका विघात होता है और जीवोंके विघात होनेसे कमवन्ध होना भी प्रसिद्ध है तथापि आधाकर्मी आहार खाने से एकान्त रूपसे पाप बताना उचित नहीं है। इसी तरह सारे अनाचारों के विषयमें समझना चाहिये । यह उक्त गाथा और उनकी टीकाका भावार्थ है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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