________________
सद्धर्भमण्डनम् ।
नीय बतलाते हैं परन्तु कारण होने पर भी व्याधाकर्मी 'आहारको त्यागनेयोग्य कहते हैं।
प्रश्नोत्तर साधशतक में जीतमलजीने लिखा है कि
—
५००
" साधुने कारण पड्यां आधाकर्मी उद्दे शिक न लेगो तो कारणे नित्य पिण्ड भोगवो कि नहीं । इति प्रश्न (५६)
(उत्तर) आधाकर्मी उद्दे शिक तो वस्तुइ अशुद्ध छे अने नित्यपिण्ड वस्तु अशुद्ध नहीं ते भाणी कारण पढ्यां दोष नहीं। कोई कहे एवो अनाचार छै ते कारणे किम सेवे ? तो अनाचार तो स्नान क्रियां पिण कह्यो, सुगन्ध सुध्यां, वमन, गले हेठना, केश कापे, रेच, भंजन, ए सर्व अनाचार छै पिण जितव्यवहारथी कारणे दोष न कह्यो ।" ( प्रश्नो० सा० श० ) इसका क्या समाधान ?
( प्ररूपक )
उद्दिष्ट भक्त और नित्य पिण्ड, इन दोनोंको शास्त्रमें एक समान दुर्गतिका कारण बताया है । उत्तराध्ययन सूत्रके वीसवें अध्ययन में इस विषय में यह गाथा आई है:"उद्दे सियं कोयगडं नियोगं, नमुचइ किंचि अनेसणिज्जं । अग्गीविवा सव्वभक्खो भवित्ता, इयो चुओ गच्छइ कट्टु पाव"
(उत्तरा० सु० )
अर्थः
जो आहार साधुके लिये बनाया गया है, जो साधुके लिये खरीदा गया है तथा एक ही after नित्य पिण्ड लेना, इन आहारोंको नहीं छोड़कर जो साधु अभिकी तरह सघभक्षी हो जाता है वह पाप कर्मका उपार्जन करत । है और उसकी गति बुरी होती है ।
इस गाथामें उद्दिष्ट भक्त और नित्य पिण्ड इन दोनोंको दुर्गतिका कारण बतलाया है । इसलिये कारण पड़ने पर नित्य पिण्ड लेनेका स्थापन करना और उद्दिष्टका खण्डन करना अज्ञानका परिणाम समझना चाहिये । वास्तवमें उत्सर्ग मार्गमें दोनों ही वर्जित हैं परन्तु अपवादकी बात न्यारी है। एक हो धनीके आहारको प्रति दिन लेना नित्यपिण्ड कहलाता है परन्तु कई नामधारी साधु एक ही धनी आहारको क्षेत्रभेद कायम करके प्रतिदिन विना कारण ही लेते हैं और रास्तेमें साधु सेवाका अधिक माहात्म्य बता कर गृहस्थों को अपने साथ लेकर विहार करते हैं। रास्तेमें प्रत्येक पडावोंपर प्रतिदिन एक ही धनीका आहार लेकर खाते हैं यह सब साधुताका विनाशक और प्रत्यक्ष शास्त्र से बिरुद्ध है इस लिये ऐसे आवरण वाले साधुओंको अज्ञानी समझना चाहिये ।
( बोल ७ वां ससाप्त ) ( इति अल्पपोप बहुनिर्जराधिकारः )
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com