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( अथ कपाटाधिकारः).
(प्रेरक)
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ट ४५६ पर लिखते हैं
"कोई पाखण्डी, साधु नाम धरायने पोते हाथथकी किमाड जडे उघाडे भने सूत्रना झूठा नाम लेईने किमाड़ जडवानी अने उघाडवानी अणहुन्ती थाप करे छ" (भ्र० पृष्ठ ४५६) इसका क्या उत्तर ? (प्ररूपक). . प्रथम तो भ्रमविध्वंसनकारके मतानुयायी साधु ही कपाट खोलने और बन्द करनेका परहेज नहीं करते, वे अपने हाथसे खिड़कीका कपाट खोलते हैं और बन्द करते हैं तथा इस कार्यको शास्त्रानुकूछ बताते हैं परन्तु यदि दूसरा कोई साधु ऐसा करे तो उसे वे बुरा बताते हैं यह इनकी अद्भुत लीला है। यदि कहो कि वे खिड़कीके कपाट को खेलते हैं और बन्द करते हैं प्रान्तु द्वारके कपाटको नहीं खोलते और नहीं बन्द करते हैं तो यह उनका मिथ्याचार है कहीं भी शासनमें ऐसा नहीं कहा है कि साधुको खिड़की का कपाट खोलना और बन्द करना चाहिये परन्तु द्वारका कपाट खोलना और बन्द करना नहीं चाहिये । मत: खिड़कीके कपाटको खोलने और बन्द करनेको बुरा नहीं मान कर भी द्वार के कपाट को खोलने और बन्द करने को बुरा बताना अज्ञानमूलक है। भिक्खुशयरसायन पत्र ११८ पर जीतमलजी लिखते हैं:
"पञ्चावने वर्ष पूज्यजी सहर कांकरोली सार सेंहलोतारी पोलमें उतरिया तिण वार (१) प्रत्यक्ष वारी पोली जडी हुन्ती तिण वार ऋषि भिक्खु रहितां थकां एक दिवस अवधार (२) वारी खोली वारणे दिशा जायवा देख निसरिया भिक्खू निशा पूछे हेम संपेख (३) स्वामी वरी खोलण तणी नहीं काई अंटकाव तब भिक्खू वोल्या तुरत प्रत्यक्ष ते प्रस्ताव (४) पूज कहे पूछे इंसी इणरो नहीं अटकाव
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