________________
४९०
सद्धर्ममण्डनम् ।
निर्जरा शब्दका अर्थ कर दिया है इस लिये अल्पतर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा से थोड़ा पाप होना ही है पापका अभाव या पाप न होना अर्थ नहीं है। उक्त टोकामें जो विवेचकोंने कारण पड़नेपर अप्रासुक आहार देनेका फल अल्प पाप और बहुतर निर्जरा बतलाया है और अन्य लोग विना कारण भी अप्रासुक दानका उक्त फल कहते हैं इन दोनोंमें कौनसा मत युक्त है इसका निर्णय टीकाकारने स्वयं कुछ नहीं करके लिखा है कि 'यत्पुनरिहतत्त्वं तत्केवलिगम्यम्' अर्थात् उक्त दोनों मतोंमें कौन मत श्रेष्ठ है यह बात केवली जानें, परन्तु टीकाकारको अल्पतर पाप शब्दका अर्थके विषयमें कोई संशय नहीं है अतः 'यत्पुनरिहतत्त्वं तत्केवलिगम्यम्' इस टीकाका नाम लेकर अल्पतापापशब्दका पापका अभाव अर्थ करना टीकाका अर्थ नहीं समझनेका परिणाम समझना चाहिये ।
[बोल २ रा]
(प्रेरक)
__ भ्रमविध्वंसन कार इस पाठका तात्पर्य यह बतलाते हैं कि जो आहार असूझता हो गया है परन्तु श्रावक और साधुको इसका पता नहीं है । साधु सूझता समझकर लेता है और श्रावक उसे सूझता समझ कर देता है उस दानका फल इस गठमें अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा कही है क्योंकि श्रावक सूझता समझकर उस अन्नको देता है इसलिये उसका कोई अपराध नहीं है अतः उस दानसे श्रावकको अल्प पाप यानी थोड़ा भी पाप नहीं होता और बहुत निर्जरा होती है। यह बात भ्र० पृ० ४४९ में कही है।
इसका क्या समाधान ? (प्ररूपक)
जिस अन्नको श्रावक असूझता नहीं जानता किन्तु सूझता जानकर साधुको देता है वह अन्न असूझता नहीं है वह सूझता ही है और उस दनका फल पूर्ण पाठमें एकान्त निर्जरा और थोड़ा भी पाप न होना कह दिया गया है फिर उसी बात को इस पाठमें दुहरानेकी कोई आवश्यकता नहीं है इसमें तो असूझता आहार देनेका फल कहा है और टीकाकारने साफ साफ लिख दिया है कि साधुके चारित्र और शरीरकी सहायता होती है इस लिये असूझता आहार हेनेसे बहुतर निर्जरा होती है और व्यवहारसे चारित्र की वाधा और हिंसा होती है इस लिये असूझता आहार देनेसे थोड़ा पाप भी होता है । यदि श्रावक सूझता समकर ही साधुको देवे तो फिर टीकाकारको ऐसा लिखनेका क्या प्रयोजन था ? और कारण पड़नेपर असुझता आहार देनेका फल अल्पतर पाप, बहुतर निर्जरा है या, विना कारण भी देने पर उक्तफल है, इस विषयका विचार
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com