Book Title: Saddharm Mandanam
Author(s): Jawaharlal Maharaj
Publisher: Tansukhdas Fusraj Duggad

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Page 539
________________ rever बहुनिर्जराराधिकारः । ४८९ समझना चाहिये | जो कि "संकरणमि अशुद्ध" इत्यादि गाथामें अप्रासुक दानको देने वाले और लेने वाले दोनोंके लिये अहित कहा है वह इस लिये कहा है कि अशुद्ध आहार लेनेसे व्यवहारतः संयम विराधना होती है और लुग्धकके दृष्टान्तसे देनेवालेकी शुभ अल्प आयु बंधती है यद्यपि वह आयु शुभ है तथापि थोड़ी होनेसे उसे अहित कहा है अप्रासु आदिका दान, शुभ आयु वन्धका भी कारण होता है यह पूर्व सूत्रमें पहले ही बतला दिया गया है । इस विषय में जो तत्व यानी यथार्थ बात है वह केवलि गम्य है यह ऊपर लिखी हुई का अर्थ है । इस टीका टीकाकारने अल्पतर पाप शब्दका अर्थ निर्जराकी अपेक्षा थोड़ा पाप होना और बहुतर निर्जराका अर्थ पापकी अपेक्षासे बहुत ज्यादा निर्जरा होना बतलाया है परन्तु पापका अभाव, या पाप नहीं होना इत्यादि अर्थ नहीं किया है अतः अल्पतर पाप शब्दका पापका अभाव अर्थ बताना मिथ्या समझना चाहिये । इस टीका विवेचक और अन्य मतसे उक्त मूल पाठके दो आशय बतलाये हैं । विवेचक लोग कारण पड़ने पर अप्रासुक दानका अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा रूप फल बतलाते हैं और अन्य लोग कारण नहीं होनेपर भी अप्रासुंक दानका अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा रूप फल मानते हैं परन्तु दोनों मतवालोंको अल्पतर पाप शब्दके में कोई मतभेद नहीं है दोनोंहीने अल्पतर पाप शब्दका निर्जराकी अपेक्षासे अल्प पाप होना ही अर्थ माना है अतः अल्पतर पाप शब्दका अर्थ पापका अभाव बताना टीका से विरुद्ध और एकान्त मिथ्या है । ( बोल १ समाप्त ) ( प्रेरक ) भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ४४८ पर " यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यम्" इस टीका वाक्यको लिख कर लिखते हैं- “ अथ अठे पिण टीकामें एपाठनो न्याय केवलीने भलायो ते मांटे अशुद्ध लेवारी थाप करणी नहीं" इसका क्या समाधान ? ( प्ररूपक ) अल्पतर पाप और बहुतर निर्जरा शब्दका अर्थके विषय में टीकाकारने केवली पर न्याय करना नहीं छोड़ा है इनका अर्थ तो स्पष्ट रूपसे कर दिया है । निर्जराकी अपेक्षा अल्प पाप होना अल्पतर पाप शब्दका और पापकी अपेक्षा बहुत निर्जरा होना बहुतर ६२ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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