________________
अथ जीवाजीवादि पदार्थ विचारः।
(प्ररूपक)
जैन शास्त्रमें, जीव, अजीव, पुण्य, पाप, आश्रव, संवर, निर्जरा बंध और मोक्ष ये नव तत्व माने गये हैं। ये नव ही तत्व, किसी न्यायसे रूपी और किसी न्यायसे मरूपी हैं। इसका विवेक नीचे लिखे अनुसार समझना चाहिये ।
जीव, निश्चयनयसे मरूपी और व्यवहार नयसे रूपी है। कौए बगले आदि । शरीर धारी प्राणियोंको जीव कहते हैं और वे रूपी हैं अतः व्यवहार नयसे जीव रूपी है। सिद्धात्मा, रूपरहित होते हैं और वे भी जीव हैं इसलिये निश्चय नयसे जीव निगकार निरसन और रूप रहित है। ठाणाङ्ग सूत्र ठाणा दोमें जीवके दो भेद किये हैं एक संसारी और दूसरा सिद्ध उनमें संसारी जीव रूपी और सिद्ध अरूपी हैं।
अजीव पदार्थ भी रूपी और अरूपी दो तरहका है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाश और काल ये अरूपी हैं और पुद्गल रूपी है।
पुण्य और पाप, रूपी और अरूपी दो तरहके हैं। आत्माका, अन्नादि दान करनेके लिये जो शुभ अध्यवसाय होता है वह पुण्य है। उक्त शुभ अध्यवसाय अरूपी है इसलिये पुण्य अरूपी है । ४२ प्रकारकी पुण्यकी प्रकृति अनंत पुदूगलोंके स्कन्धसे उत्पन्न होती हैं अत: शुभकरनीसे उत्पन्न हुआ पुण्य रूप फल रूपी है । हिंसा आदि करनेके लिये जो बुरा अध्यवसाय या आत्मपरिणाम होता है वह पाप है वह अध्यवसाय अरूपी है इसलिये पाप अरूपी है। पापका फल जो ८२ प्रकृतियोंका उदय है वह भी पाप कहलाता है और वह रूपवान् है इसलिये पाप रूपी भी है।
आश्रव भी रूपी और अरूपी दो तरहका होता है शुभ, और अशुभ अध्यवसाय, छः भाव लेश्याए', मिथ्यात्व आदि जीवके परिणाम ये सब कर्मबन्धके कारण होने से मानव कहलाते हैं ये रूपी नहीं हैं इसलिये आश्रव अरूपी है। कर्म और अजीवकी २५ क्रियाएं, छः द्रव्यलेश्या, मिथ्यात्व आदि कर्मको प्रकृति ये सब कर्मबन्धके कारण होमेसे माश्रव कहे जाते हैं ये सब रूपी हैं इसलिये आश्रव भी रूपी है।
संवर भी रूपी और अरूपी दो प्रकारका होता है। सम्यक्त्व, व्रत, अप्रमाद, अकषाय और अयोग ये सब संवर कहे जाते हैं । ये जीवके गुण और अरूपी हैं इस
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com