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मसद्धमण्डनम्।
भगवतो सूत्र शतक १३ उद्देशा १ में यह मूलपाठ आया है -
"गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवोए तीसाए णिरयावास सय सहस्सेसु संखेन्जावि पत्थडेंस नरयेसु संखेज्जा रया पण्णत्ता संज्जा काउलेस्सा पण्णत्ता एवं जाव संखेला सन्नी पण्णत्ता असंज्ञो सिय अस्थि सिय णो अस्थि जइ अस्थि एक्कोवा दोवा तीणिवा उक्कोसेणं संखेना पण्णत्ता"
(भगवती शतक १३ उद्देशा १) अर्थ :
हे गोतम ! रत्नप्रभा नामक पृथिवीमें कुल तीस लाख नारकि जीव के निवास स्थान हैं उनमें कई संख्यात योजन और कई असंख्यात योजन विस्तृत हैं। संख्यात योजन विस्तृत नरकावासोंमें संख्यात नारकि और संख्यात कापोतलेशी जीव रहते हैं । संख्यात नारकि जीव संज्ञी हैं परन्तु असंज्ञी जीव इन नरकोंमें कभी होते हैं और कभी नहीं भी होते हैं यदि होते हैं तो १-२-३ और उत्कृष्ट संख्यात होते हैं।
इस पाठमें नारकि जीवोंमें जघन्य १-२-३ और उत्कृष्ट संख्यात असंज्ञी जीव कहे गये हैं । तथा असंख्यात योजन वाले नरकाबासमें असंत्र्यात असंज्ञी जीव माने गये हैं । भगवती शतक १३ उद्देशा २ में भुवनपति और व्यन्तर देवोंके लिये भी इसी तरह का पाठ आया है इसलिये प्रथम नारकी भुवनपति तथा व्यन्तर देवोंमें असंज्ञीका अपर्याप्त नामक भेद न मानना अयुक्त है। ऊपर लिखे हुए पाठ जो "सिय अत्थि सिय नो अत्थि" यह असंज्ञीके विषयमें पाठ आया है इसका अभिप्राय बताते हुए टीकाकारने यह लिखा है "असज्ञिभ्य उद्धृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तावस्थायामसंझिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति कृत्वा" "सिय अत्थि" इत्याधु क्तम्” अर्थात् जो जीव असंज्ञीसे निकलकर नरकमें जाते हैं वे अपर्याप्तावस्थामें असंज्ञी ही होकर रहते हैं वे जीव बहुत अल्प होते हैं इस लिये मूलपाठमें लिखा है कि "सिय अत्थि" इत्यादि ।
यहां टीकाकारने मूलपाठका आशय समझाते हुए नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपयाप्त नामक भेदका स्पष्ट उल्लेख किया है अत: नारकि जीवोंमें असंज्ञीके अपर्याप्त नामक भेदको न मानना उक्त मूलपाठ और टीकासे विरुद्ध होनेके कारण अप्रामाणिक समझना चाहिये।
मगवती सूत्र शतक १ उद्देशा ४ में संज्ञी नारकि और देवतामें काला देशके छः भङ्ग बतलाये हैं एवं जीवाभिगम सूत्रमें नारकि, भुवनपति, और व्यन्तर दोवोंके संझी और असंज्ञी दोनों ही भेद कहे गये हैं। वहांका पाठ यह है
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