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सद्धममण्डनम् ।
में स्वाध्याय करने और कालमें स्वाध्याय न करने रूप अतिचार श्रावकों कैसे हो सकते हैं ? अतः आवश्यक सूत्रसे अतिरिक्त सूत्रोंके पढ़नेका श्रावक को अधिकार न मानना मिथ्या है ।
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नदी सूत्र और समवायाङ्ग सूत्रमें श्रावकोंके लिये यह पाठ आया है"सुयपरिग्गहा तपोवहाणाह"
( टीका )
"श्रुत परिप्रहास्तप उपधानानि प्रतीतानि”
अर्थात श्रावक सूत्र पढ़े हुए और उपधान रूप तपके करने वाले होते हैं ।
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यह मूलपाठ और टीकामें श्रावकको श्रुत परिग्रह ( शास्त्र पढ़ने वाला ) कहा है । यदि श्रावकको शास्त्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो वह श्रुत परिग्रह कैसे हो सकता है ? अतः श्रावकों को व्यावश्यक सूत्र से भिन्न सूत्रोंके पढ़ने का अधिकार स्पष्ट सिद्ध होता है तथापि उसे न मानना मूर्खताका परिणाम है ।
( बोल १ समाप्त )
( प्रेरक )
भ्रमविध्वंसनकार भ्रमविध्वंसन पृष्ठ ३६८ पर लिखते हैं
“जे जन्दी समवायाङ्ग साधाने सुयपरिग्गहिया का ते तो सूत्र श्रुत अने अर्थ बहूना ग्रहण करवा थकी कह्या छै मने श्रावकाने सुयपरिग्गहिया कह्या ते अर्थ श्रुत नाही ग्रहण करणहार मांटे जाणवा" (भ्र० पृ० ३६८ )
इसका क्या समाधान ?
(प्ररूपक )
नन्दी और समवायांग सूत्रमें साधु और श्रावक दोनोंके लिये समान ही "सुयपरिग्गहिया " यह पाठ आया है । साधुके लिये इसका अर्ग दूसरा हो और श्रावकके लिये दूसरा हो यह त्रिकालमें भी नहीं हो सकता । टीका और टव्वामें भी यह नहीं लिखा है। कि साधु तो सूत्र अर्थ दोनों ही पढ़ता है और श्रावक केवल अर्थ ही पढ़ता है इसलिये साधु की तरह श्रावकका भी सूत्र और अर्थ दोनों ही पढ़नेका अधिकार है ।
उत्तराध्ययन सूत्रमें पालित नामक श्रावकके विषयमें यह पाठ आया है - "निग्गंथे पावपणे सावए सेवि कोविए"
अर्थात वह पालित नामक श्रावक, निप्रन्थ प्रवचनका कोविद ( पण्डित ) था । यदि श्रावकको सूत्र पढ़नेका अधिकार ही नहीं है तो पालित श्रावक निग्रन्थ प्रवचनका कोविद कैसे हो सकता था ?
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